Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan

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Page 146
________________ कृष्णादित्य था। ये आहवमल के प्रधानमंत्री थे, जो बड़े धर्मात्मा थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम सुलक्षणा था, जो उदार, धर्मात्मा, पतिभक्त और रूपवती थी। इनके दो पुत्र थे— हरिदेव और द्विजराज। इन्हीं कण्ह की प्रार्थना से कवि लक्ष्मण ने वि.सं. 1313 में 'अणवय-रयम-पईव' नाम का ग्रंथ बनाया था। कवि धनपाल ने अपने 'बाहुबलि-चरित' की प्रशस्ति में लिखा है कि 'चन्द्रवाड' में चौहानवंशी राजा अभयचन्द्र के, और उनके पुत्र जयचन्द के राज्यकाल में लम्बकंचुक-वंश' के साहू सोमदेव मंत्री-पद पर प्रतिष्ठित थे, और उनके द्वितीय पुत्र रामचन्द्र के समय सोमदेव के पुत्र वासाधर राज्य के मंत्री थे, जो सम्यक्त्वी जिन-चरणों के भक्त, जैनधर्म के पालन में तत्पर, दयालु, मिथ्यात्व-रहित, बहुलोक-मित्र और शुद्ध-चित्त के धारक थे। इनके आठ पुत्र थे - जसपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, विहराज, पुष्पपाल, बाहडु और रूपदेव। ये आठों पुत्र अपने पिता के समान धर्मज्ञ और सुयोग्य थे। भट्टारक प्रभाचन्द्र ने विक्रम संवत् 1454 में में वासाधर की प्रेरणा से 'बाहुबलि-चरित' की रचना की थी। उन्होंने 'चन्द्रवाड' में एक मन्दिर बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा की थी। इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है 'लम्बकंचुक-आम्नायी' भी अच्छे सम्पन्न और राजमान्य रहे हैं। वर्तमान में भी वे अच्छे धनी और प्रतिष्ठित हैं। 10. हुंबड या हूमड यह जाति भी उन चौरासी-जातियों में से एक है। यह जाति विनयसेन आचार्य के शिष्य कुमारसेन द्वारा विक्रम संवत् 800 के अनुमानतः 'जागड देश' में स्थापित की गई थी। यह जाति सम्पन्न और वैभवशालिनी रही है। इस जाति का निवास-स्थान गुजरात, मुम्बई-प्रान्त और बागड-प्रान्त में रहा है। यह 'दस्सा' और 'बीसा' इन दो भागों में बँटी हुई है। इस जाति में उत्पन्न अनेकों श्रावक राज्यमंत्री और कोषाध्यक्ष आदि सम्माननीय पदों पर प्रतिष्ठित रहे हैं। इनके द्वारा निर्मित अनेक मन्दिर और मूर्तियाँ पाई जाती हैं। ग्रंथ-निर्माण में भी यह प्रेरक रहे हैं। इनके द्वारा लिखाये हुये ग्रंथ अनेक शास्त्र-भण्डारों में उपलब्ध होते हैं। वर्तमान में भी वे समृद्ध देखे जाते हैं। इनमें 18 गोत्र प्रचलित हैं। खैरजू, कमलेश्वर, काकडेश्र, उत्तरेश्वर, मंत्रेश्वर, भमेश्वर, भद्रेश्वर, गणेश्वर, विश्वेश्वर, संकखेश्वर, आम्बेश्वर, बाचनेश्वर, सोमेश्वर, राजियानों, ललितेश्वर, काश्वेश्वर, बुद्धेश्वर और संघेश्वर। इसके अतिरिक्त इस जाति के द्वारा निर्मित मन्दिरों में सबसे प्राचीन मन्दिर 'झालरापाटन' में शांतिनाथ-स्वामी का है, जिसकी प्रतिष्ठा हुमडवंशी शाह पीपा ने वि.सं. 1103 में करवाई थी। इस जाति में अनेक विद्वान् भट्टारक भी हुये हैं। भट्टारक सकलकीर्ति और ब्रह्मजिनदास इस जाति के भूषण थे, जिनकी 00128 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ

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