Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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परम्परा 250-300 वर्षों तक चली। इस जाति में जैन-धर्म-परम्परा का बराबर पालन होता रहा है। वर्तमान में हूमड़-समाज की जनसंख्या 2-3 लाख होगी। मुम्बई, उदयपुर, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, सागवाड़ा जैसे नगर इस समाज के प्रमुख-केन्द्र हैं। 11. गोलापूर्व
जैन-समाज की 84 जातियों में 'गोलापूर्व' भी एक सम्पन्न-जाति रही है। इस जाति का वर्तमान में अधिकतर निवास 'बुन्देलखण्ड' में सागर जिला, दमोह, छत्तरपुर, पन्ना, सतना, रीवा, आहार, जबलपुर, शिवपुरी और ग्वालियर के आस-पास के स्थानों में निवास रहा है। 12वीं और 13वीं शताब्दी के मूर्ति-लेखों से इसकी समृद्धि का अनुमान किया जा सकता है। इस जाति का निवास 'गोल्लागढ़' (गोलाकोट) की पूर्व दिशा से हुआ है। इसकी पूर्व-दिशा में रहनेवाले 'गोलापूर्व' कहलाते हैं। यह जाति किसी समय इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय थी, किन्तु व्यापार आदि करने के कारण वणिक्-समाज में इसकी गणना होने लगी। मूर्ति-लेखों और मन्दिरों की विशालता से 'गोलापूर्वान्वय' गौरवान्वित है। वर्तमान में भी इस जाति द्वारा निर्मित अनेक शिखरबन्द मन्दिर शोभा बढ़ा रहे हैं। 12. गोलालारे
'गोलागढ़' ग्वालियर या गोपाचल का ही दूसरा नाम है। इसके समीप रहनेवाले 'गोलालारे' कहलाते हैं। यह उपजाति यद्यपि संख्या में अल्प रही है, परन्तु फिर भी धार्मिक दृष्टि से बड़ी कट्टर रही है। इस जाति के द्वारा प्रतिष्ठित अनेकों मूर्तियाँ देखने में आती हैं। अनेक विद्वान् तथा लक्ष्मीपुत्र भी इसमें होते रहे हैं, और आज भी उनकी अच्छी संख्या है। इसके उद्भव का स्थान 'गोलागढ़' है।
इनके गोत्रों की संख्या कितनी और उनके क्या-क्या नाम हैं, इसके बारे में व्यवस्थित जानकारी नहीं मिलती। 13. गोलसिंघारे (गोलश्रृंगार ) _ 'गोलागढ़' में सामूहिकरूप से निवास करनेवाले श्रावकगण 'गोलसिंघारे' कहे जाते हैं। श्रृंगार' का अर्थ यहाँ 'भूषण' है, जिसका अर्थ हुआ गोलागढ़ के भूषण। इस जाति का कोई विशेष इतिहास नहीं मिलता। 17वीं शताब्दी के कितनी ही ग्रंथ-प्रशस्तियों में इस जाति के श्रावकों का उल्लेख मिलता है, पर 'सिंघारे' का अर्थ सहज अभिप्राय को व्यक्त करता है। इसके उदय, अभ्युदय और ह्रास आदि का विशेष इतिवृत्त ज्ञात नहीं होता और न इसके ग्रंथकर्ता विद्वान् कवियों का ही परिचय ज्ञात हो सका। कुछ मूर्ति-लेख हमारे देखने में अवश्य आते हैं। एक यंत्र-लेख
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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