Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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तथा उससे आगे जिनमन्दिर है। तीन गर्भ-गृहों में धातु, पाषाण आदि की अनेक कलापूर्ण मूतियाँ हैं, जिसमें से कुछ मूर्तियाँ संस्कृत व तुव्वु भाषाओं के लेख सहित, जो ग्रन्थ-लिपि में हैं, बहुत प्राचीन हैं। मन्दिर में ज्वालामालिनी, शारदा एवं कुष्मांडिनी आदि शासन-देवियों की मूर्तियाँ बनी हैं। मठ की दीवारों पर तीर्थंकरों तथा जैन-नरेशों की जीवन-घटनाओं के रंगीन चित्र अंकित किये हुये हैं। मठ के प्रवेशमण्डप के स्तम्भों पर खुदाई का सुन्दर कार्य किया हुआ है। ऊपर की मंजिल में, जो बाद में निर्मित हुई, तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित है। प्रतिष्ठित मूर्तियों में से अनेक तमिलनाडु के जैन-बन्धुओं द्वारा भेंट की गई हैं। इन मूर्तियों पर संस्कृत एवं तमिल भाषा में जो लेख अंकित हैं, उनका काल सन् 1850 से लेकर 1858 तक पड़ा है। मठ में नव-देवता की मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है। इस मूर्ति में पंच-परमेष्ठी के अतिरिक्त जिनधर्म, जिनागम, चैत्य एवं चैत्यालय भी प्रतीक रूप में बने हैं। इसी कारण इसे 'नवदेवता मूर्ति' कहा जाता है। मठ चन्द्रगुप्त-ग्रन्थमाला नामक शास्त्र-भण्डार, अनेक प्राचीन हस्तलिखित भोजपत्रीय और ताडपत्रीय ग्रन्थों के संग्रह के कारण यथेष्ठ प्रसिद्ध है। मठ में अमूल्य नवरत्नमय मूर्तियों का दर्शन भी कराया जाता है।
___ गोम्मटेश्वर मूर्ति की प्रतिष्ठा के पश्चात् चामुण्डराय ने अपने गुरु नेमिचन्द सिद्धांतचक्रर्ती को अपना आध्यात्मिक परामर्शक निर्धारित किया था। यहाँ के चारुकीर्ति पंडिताचार्य मठाधीश एवं राजगुरु माने जाते थे और अनेक राजवंश उनकी अलौकिक प्रतिभा से उपकृत हुये थे। यहाँ के मठाधीशों की विद्वत्ता तथा आध्यात्मिक-शक्ति प्रदर्शन के अनेक उल्लेख मिलते हैं। 'सिद्धर बसदि' के दायें और बायें स्तम्भों पर उत्कीर्ण विस्तृत लेखों (क्रम संख्या 360 से 364) के अनुसार यहाँ पर आसीन गुरु चारुकीर्ति पंडित को होयसल-नरेश बल्लाल प्रथम (राज्यकाल 1100-1106) को व्याधि-मुक्त कर देने के कारण 'बल्लाल-जीवनरक्षक' की उपाधि से विभूषित किया गया था। पूर्वकाल से ही यहाँ के भट्टारक जप, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि एवं मौन अनुष्ठान में रत रहते हुये श्रावकों को धर्मोपदेश देकर आत्मकल्याण के लिये प्रेरित करते रहे हैं।
जैसाकि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि दिगम्बर जैनों ने मध्यकाल में अपने निरन्तर धार्मिक एवं सामाजिक विघटन के विरुद्ध भट्टारक-संस्था आरम्भ की थी। व्यवहार में जब दिगम्बर-जैन-श्रमण-परम्परा कमजोर पड़ने लगी, तो भट्टारक दिगम्बर-जैन-सम्प्रदाय के धार्मिक व सामाजिक नेतृत्व के रूप में उभरे थे। भट्टारकों ने दिगम्बर-जैन-समाज की दो धार्मिक श्रेणियों क्रमशः संघ, गण अथवा गच्छ में विभाजित किया। भट्टारक मोटे तौर पर दिगम्बर-जैन-समाज से जुड़े थे; किन्तु इसके साथ एक और दोषपूर्ण व्यवस्था आरम्भ हुई, वह थी दिगम्बर-जैनविशेष के भट्टारकों की परम्परा। ऐसा दिखाई देता है कि दिगम्बर-जैन-जातियों में
भगवान महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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