Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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की उपस्थिति आवश्यक मानी जाती रही। 650 वर्षों में से 600 वर्ष तक तो ये भट्टारक जैन-समाज के अनेक विरोधों के बावजूद भी श्रद्धा के पात्र बने रहे और समाज इनकी सेवाओं को आवश्यक समझता रहा। शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, सकलकीर्ति, ज्ञानभूषण जैसे भट्टारक किसी भी दृष्टि से साधकों से कम नहीं थे; क्योंकि उनको ज्ञान, त्याग, तपस्या और साधना सभी तो उनके समान थी और वे अपने समय के एकमात्र निर्विवाद दिगम्बर समाज के प्रतिनिधि थे। उन्होंने मुगलों के समय में जैनधर्म की रक्षा ही नहीं की, किन्तु साहित्य एवं संस्कृति की रक्षा में भी अत्यधिक तत्पर रहे। भट्टारक शुभचन्द्र को 'यतियों का राजा' कहा जाता था तथा भट्टारक सोमकीर्ति अपने आपको 'आचार्य' लिखना अधिक पसन्द करते थे। भट्टारक वीरचन्द्र 'महाव्रतियों के नायक' थे। उन्होंने 16 वर्ष तक नीरस आहार का सेवन किया था। तथा भट्टारक सकलकीर्ति को 'निर्ग्रन्थराज' कहा जाता था।
ग्रंथ-भण्डारों की स्थापना, नवीन पाण्डुलिपियों का लेखन एवं उनका संग्रह आदि सभी इनके अद्वितीय कार्य थे। आज भी जितना अधिक पाण्डुलिपियों का संग्रह भट्टारकों के केन्द्रों पर मिलता है, उतना अन्यत्र नहीं। अजमेर, नागौर, आमेर जैसे नगरों के शास्त्र-भण्डार इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ये भट्टारक ज्ञान की जीवन्त मूर्ति होते थे। इन्होंने प्राकृत एवं अपभ्रंश के साथ-साथ संस्कृत एवं हिन्दी में ग्रंथ-रचना को अधिक प्रोत्साहन दिया और स्वयं ने भी प्रमुखतः इन्हीं भाषाओं में ग्रंथों का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त वे साहित्य की किसी भी एक विद्या से चिपके नहीं रहे, किन्तु साहित्य के सभी अंगों को पल्लवित किया। उन्होंने चरित-काव्यों के साथ-साथ पुराण, काव्य-वेली, रास पचासिका, शतक-बावनी, विवाहलो, आख्यानपद एवं गीतों की रचना में गहरी रुचि ली और संस्कृत एवं हिन्दी में सैकड़ों महत्त्वपूर्ण रचनाओं में उनके प्रचार-प्रसार में पूर्ण योग दिया। इन्हीं के शिष्य 'ब्रह्म जिनदास' जैसा हिन्दी-साहित्य में दूसरा कोई कवि नहीं मिलेगा; जिन्होंने अकेले 35 'रासक' ग्रंथ लिखे हों। ब्रह्म जिनदास का 'राम-सीतारास' तुलसीदास के 'रामचरित मानस' से भी कहीं बड़ा है।'
साहित्य-निर्माण के अतिरिक्त श्रमण-संस्कृति के इन उपासकों द्वारा राजस्थान, मध्यप्रदेश, देहली, बागड प्रदेश एवं गुजरात में मन्दिरों के निर्माण में, प्रतिष्ठा-समारोहों के आयोजनों में, मूर्तियों की प्रतिष्ठा में जितना योगदान दिया गया, वह भी आज हमारे लिये इतिहास की वस्तु है। आज सारा बागड प्रदेश, मालवा प्रदेश, कोटा, बूंदी, एवं झालावाड़ का प्रदेश, चम्पावती, टोडारायसिंह एवं रणथम्भौर का क्षेत्र जितना जैन पुरातत्त्व में समृद्ध है, उतना देश का अन्य कोई क्षेत्र नहीं है। मुगल-शासन में एवं उसके बाद भी इन भट्टारकों ने इसप्रकार के कार्य की सम्पन्नता में जितना रस लिया, वह भारतीय पुरातत्त्व के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ