Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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आचार्य नयसेन
'धर्मामृत' के रचयिता आचार्य नयसेन का जन्मस्थान धारवाड़ जिले का मूलगुन्दा नामक तीर्थस्थान है। उत्तरवर्ती कवियों ने उन्हें 'सुकवि-निकर-पिकमाकन्द', 'सुकविजन-मन:सरोज-राजहंस' एवं 'वात्सल्यरत्नाकर' आदि विशेषणों से विभूषित किया है। नयसेन के गुरु का नाम नरेन्द्रसेन था।
नयसेनाचार्य संस्कृत, तमिल और कन्नड़ के धुरन्धर विद्वान् थे। इन्होंने 'धर्मामृत' के अतिरिक्त कन्नड़ का एक व्याकरण भी रचा है। इन्होंने अपने को 'तर्कवागीश' कहा है तथा अपने को चालुक्यवंश के भुवनैकमल्ल (शक संवत् 1069-1076) द्वारा वन्दनीय कहा है। ___ 'धर्मामृत' में ग्रन्थरचना का समय दिया हुआ है। इससे इनका समय ईस्वी सन् की 12वीं शती का पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है। 'धर्मामृत' ग्रन्थ में कथाओं के माध्यम से धर्म के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। श्रावकाचार की प्रायः सभी बातें इस ग्रंथ में बतायी गयी हैं। विषय-प्रतिपादन करने की विधि अत्यन्त सरल और सरस है। कथात्मक-शैली में धर्मसिद्धान्तों का निरूपण किया गया है। आचार्य वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती _ 'आचारसार' के रचयिता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती मूलसंघ, पुस्तकगच्छ और देशीयगण के आचार्य हैं। इनके गुरु मेघचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। मेघचन्द्र के शिष्य वीरनन्दि का समय ईस्वी सन् की 12वीं शताब्दी का मध्य भाग है।
वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती की एक ही कृति प्राप्त है - 'आचारसार'। इसमें मुनियों के आचार का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। ग्रन्थ 12 परिच्छेदों में विभक्त है। श्रुतमुनि
श्रुतमुनि की तीन रचनायें प्राप्त होती हैं - 1. परमागमसार, 2. आस्रवत्रिभंगी, एवं 4. भावत्रिभंगी। 'आस्रवत्रिभंगी' में 62 गाथायें हैं, जिनमें आस्रव के 57 भेदों का गुणस्थानों में कथन किया गया है। 'भावत्रिभंगी' में 116 गाथायें हैं। इस ग्रन्थ में गुणस्थान और मार्गणास्थानक्रमानुसार भावों का वर्णन आया है। 'परमागमसार' में 230 गाथायें हैं, और आगम के स्वरूप तथा भेद-प्रभदों का वर्णन आया है। दोनों त्रिभंगी-ग्रन्थ 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' से ग्रन्थसंख्या 20 में प्रकाशित हैं। आचार्य हस्तिमल्ल
हस्तिमल्ल वत्स्यगोत्रीय ब्राह्मण थे और इनके पिता का नाम गोविन्दभट्ट था। ये दक्षिण-भारत के निवासी थे। विक्रान्तकौरव नाटक की प्रशस्ति से अवगत होता है कि गोविन्दभट्ट ने स्वामी समन्तभद्र के प्रभाव से आकृष्ट होकर मिथ्यात्व त्याग
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ