Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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'पासणाहचरिउ' के वर्णनों से भी इनका दाक्षिणात्य होना सिद्ध होता है। युद्धवर्णन - सम्बन्ध में कर्नाटक और महाराष्ट्र के वीरों की प्रशंसा की गयी है। अतएव जन्मभूमि के प्रेम के कारण कवि को दाक्षिणात्य मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है। अर्थात् 18 संधियों से युक्त यह पुराण 63 पुराणों में सबसे अधिक प्रधान है । नानाप्रकार के छन्दों से सुशोभित 310 कड़वक तथा 3323 से कुछ अधिक पंक्तियाँ इस ग्रन्थ का परिमाण हैं। आचार्य पद्मकीर्ति ने धर्म, दर्शन और काव्य की त्रिवेणी इस ग्रन्थ में एकसाथ प्रवाहित की है।
आचार्य इन्द्रनन्दि द्वितीय
पं. जुगलकिशोर जी ने अनुमान किया था कि 'छेद- पिण्ड' के रचयिता इन्द्रनन्दि ‘मल्लिषेणप्रशस्ति' में निर्दिष्ट इन्द्रनन्दि हैं । इन्द्रनन्दि का समय ईस्वी सन् की 10वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध या 11वीं शती का पूर्वार्द्ध होना सम्भव है।
इन्द्रनन्दि का 'छेदपिण्ड' नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से विक्रम संवत् 1978 में हुआ है। प्रकाशित प्रति में 362 गाथायें हैं, पर ग्रन्थ में निबद्ध गाथा में 333 ही गाथाओं की संख्या बतायी है और श्लोक - प्रमाण 420 बताया गया है।
नामानुसार तत्तदधिकार में होनेवाले दोष और इन दोषों के निराकरणार्थ प्रायश्चित्तविधि का वर्णन आया है। वस्तुतः यह प्रायश्चितशास्त्र आत्म-शुद्धि के लिये अत्यन्त उपयोगी है। मूलगुण और उत्तरगुणों में प्रमाद या अज्ञान से लगनेवाले दोषों का कथन किया गया है।
आचार्य वसुनन्दि प्रथम
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वसुनन्दि प्रथम ने 'प्रतिष्ठासंग्रह' की रचना संस्कृत भाषा में की है और श्रावकाचार' या 'उपासकाध्ययन' की रचना प्राकृत भाषा में। अतः स्पष्ट है कि वे उभय भाषा के ज्ञाता थे। यही कारण है कि वसुनन्दि को उत्तरवर्ती आचार्यों ने 'सैद्धान्तिक ' उपाधि द्वारा उल्लिखित किया है । कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में श्रीनन्दि नाम के आचार्य हुये। उनके शिष्य नयनन्दि और नयनन्दि के शिष्य नेमिचन्द्र हुये । नेमिचन्द्र प्रसाद से वसुनन्दि ने यह 'उपासकाध्ययन' लिखा है।
ग्रन्थरचनाकार वसुनन्दि ने इस ग्रन्थ के निर्माण का समय नहीं दिया है। वसुनन्दि का समय ईस्वी सन् की 11वीं शताब्दी का अन्तिम चरण या 12वीं शताब्दी का प्रथम चरण सम्भव है। आचार्य वसुनन्दि के 'प्रतिष्ठासारसंग्रह', 'उपासकाचार' और 'मूलाचार की आचारवृत्ति' ये तीन ग्रन्थ हैं। ' आप्तमीमांसावृत्ति' और 'जिनशतक' टीका के रचयिता अन्य वसुनन्दि हैं। इन समस्त ग्रन्थों में इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण रचना 'उपासकाध्ययन' या ' श्रावकाचार' है।
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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