Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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के बाद होना चाहिये। अमितगति से उत्तरवर्ती होने के कारण पद्मनन्दि द्वितीय का समय ईस्वी सन् की 11वीं शती माना गया है। अमितगति ने विक्रम संवत् 1073 में अपना 'पंचसंग्रह' रचा है।
'पद्मनन्दिपंचविंशति' अत्यन्त लोकप्रिय रचना रही है। इस पर किसी अज्ञात विद्वान् की संस्कृत-टीका है। इस रचना में 26 विषय हैं - 1. धर्मोपदेशामृत, 2. दानोपदेश, 3. अनित्यपंचाशत, 4. एकत्वसप्तति, 5. यतिभावनाष्टक, 6. उपासकसंस्कार, 7. देशव्रतोद्योतन, 8. सिद्धस्तुति, 9. आलोचना, 10. सद्बोधचन्द्रोदय, 11. निश्चयपंचाशत, 12. ब्रह्मचर्यरक्षावर्ति, 13. ऋषभस्तोत्र, 14. जिनदर्शनस्तवन, 15. श्रुतदेवतास्तुति, 16, स्वयंभूस्तुति, 17. सुप्रभाताष्टक, 18. शान्तिनाथस्तोत्र, 19. जिनपूजाष्टक, 20. करुणाष्टक, 21. क्रियाकाण्डचूलिका, 22. एकत्वभावनादशक, 23. परमार्थविंशति, 24 शरीराष्टक, 25. स्नानाष्टक, एवं 26. ब्रह्मचर्याष्टक। आचार्य जयसेन प्रथम
'धर्मरत्नाकर' नामक ग्रन्थ के रचयिता आचार्य जयसेन 'लाडबागड' संघ के विद्वान् थे। उन्होंने धर्मरत्नाकर की अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरुपरम्परा अंकित की है। इस परम्परा में बताया है कि धर्मसेन के शिष्य शान्तिषेण, शान्तिषेण के गोपसेन, गोपसेन के भावसेन और भावसेन के शिष्य जयसेन थे। इन्होंने अपने वंश को 'योगीन्द्रवंश' कहा है।
'धर्मरत्नाकर' में जो उसका रचनाकाल विक्रम संवत् 1055 दिया गया है, उसकी पुष्टि अन्य प्रमाणों से भी होती है। आचार्य जयसेन द्वितीय
आचार्य जयसेन द्वितीय भी अमृतचन्द्रसूरि के समान कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के टीकाकार हैं। इन्होंने समयसार की टीका में अमृतचन्द्र के नाम का उल्लेख किया है, और उनकी टीका के कतिपय पद्य भी यथास्थान उद्धृत किये हैं।
जयसेनाचार्य के गुरु का नाम सोमसेन और दादा-गुरु का नाम वीरसेन था। जयसेनाचार्य सेनगणान्वयी हैं। इन्होंने अन्य किसी टीका में अपना परिचय नहीं दिया है। जयसेनाचार्य ने अपनी टीकाओं में अनेक श्लोक और गाथायें अन्य ग्रन्थों से उद्धृत की हैं। जयसेन ईस्वी सन् 1154 के पश्चात् ही हुये होंगे।
जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय - इन तीनों ग्रन्थों पर अपनी टीकायें लिखी हैं। इन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा की गयी टीका से भिन्न शैली में अपनी टीका लिखी है। इनकी टीका-शैली की प्रमुख विशेषतायें इसप्रकार हैं - समस्त पदों का व्याख्यान, आशय का स्पष्टीकरण,
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ