Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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इनमें से प्रारम्भ की पाँच रचनायें ही प्राप्त होती हैं, शेष छः रचनायें अनुपलब्ध हैं। न्याय और दर्शन के गूढ़ सिद्धान्तों को लगभग सूत्रात्मक शैली में काव्य-शास्त्रीय उच्चमानदण्डों के अनुरूप प्रस्तुत कर समन्तभद्राचार्य जैन - आचार्यपरम्परा के शिरोमणि बन गये हैं।
आचार्य सिद्धसेन
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य आचार्य 'सिद्धसेन' प्रख्यात दार्शनिक, न्यायवेत्ता एवं कवि थे। आपके द्वारा रचित साहित्य प्राकृत भाषा में निबद्ध होकर भी व्यापकरूप से विद्वानों में समाद्रित रहा है। आपकी सूक्तियाँ बड़े-बड़े आचार्यों के द्वारा भी सराही गई हैं।
'प्रभावकचरित' के अनुसार उज्जयिनी नगरी के कात्यायन - गोत्रीय देवर्षि ब्राह्मण की देवश्री पत्नी के उदर से इनका जन्म हुआ था। ये प्रतिभाशाली और समस्त शास्त्रों के पारंगत विद्वान् थे । वृद्धवादी जब उज्जयिनी नगरी में पधारे, तो उनके साथ सिद्धसेन का शास्त्रार्थ हुआ । सिद्धसेन वृद्धवादी से बहुत प्रभावित हुये और उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। गुरु ने इनका दीक्षानाम 'कुमुदचन्द्र' रखा। आगे चलकर ये सिद्धसेन के नाम से प्रसिद्ध हुये ।
व्यापक ऊहापोह के बाद विद्वानों ने आचार्य सिद्धसेन का समय विक्रम संवत् 625 के आस-पास माना है। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार आपके द्वारा रचित ग्रन्थों में 'सन्मति-सूत्र' एवं 'कल्याणमंदिर' स्तोत्र हैं। 'सन्मति - सूत्र' प्राकृत भाषा में लिखित दर्शन एवं न्याय के तत्त्वों से समन्वित अद्वितीय ग्रन्थ है, जबकि 'कल्याणमंदिर-स्तोत्र' संस्कृत में रचित है। प्रतीत होता है कि इसकी रचना आचार्य सिद्धसेन ने दीक्षा के तुरन्त बाद ही की होगी, क्योंकि इसमें ग्रन्थकर्त्ता के रूप में आपका दीक्षानाम 'कुमुदचन्द्र' प्राप्त होता है।
सिद्धसेन दार्शनिक और कवि दोनों हैं। दोनों में उनकी गति अस्खलित है। जहाँ उनका काव्यत्व उच्चकोटि का है, वहीं उनका उसके माध्यम से दार्शनिक विवचेन भी गम्भीर और तत्त्वप्रतिपादनपूर्ण है। ओजगुण इनकी कविता का विशेष उपकरण है।
आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि
अध्यात्मवेत्ता-दार्शनिक, श्रेष्ठ कवि, भिषग् एवं व्याकरण जैसे बहुआयामी वैशिष्ट्यों के धनी आचार्य देवनन्दि अपने अतुलनीय प्रतिभा एवं सिद्धियों के कारण 'पूज्यपाद' के विरुद से विभूषित हुये और कालान्तर में इनका यही नाम अधिक प्रचलित हो गया। कन्नड़ भाषा के कथाग्रन्थों एवं शिलालेखों में देवताओं के द्वारा पूजित चरण होने के कारण इन्हें 'पूज्यपाद' कहा गया है। कहा जाता है कि आपके
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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