Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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आचार्य जोइंदु
अपभ्रंश-भाषा में जैन-वाङ्मय के प्रथम-प्रणेता के रूप में आचार्य जोइंदु का नाम विश्वविख्यात है। आपका वास्तविक नाम 'योगीन्द्र' था, जिसका अपभ्रंश-रूप 'जोइंदु' परमात्म-प्रकाश नामक ग्रंथ में उल्लिखित मिलता है, इसीसे आपका नाम जोइंदु प्रचलित हो गया। अपभ्रंश-भाषा के नियमों की दृष्टि से भी 'योगीन्द्र' का 'जोइंदु' रूप ही सही बैठता है। इस विषय में डॉ. सुदीप जैन ने अपने शोध-ग्रंथ24 में व्यापक प्रमाणपूर्वक सिद्धि की है।
आचार्य जोइंदु के जीवन के बारे में कोई भी प्रमाण नहीं मिलता। एकमात्र सम्पर्कसूत्र ग्रंथ की रचना का निमित्त 'भट्टप्रभाकर' का उल्लेख है, किन्तु यह भी कोई ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं हैं, जिससे इनके व्यक्तित्व-परिचय या काल-निर्णय में कोई मदद मिल सके। इनके काल-निर्णय के बारे में अन्य अंत:साक्ष्यों एवं बहिर्साक्ष्यों के आधार पर डॉ. सुदीप जैन ने इनका काल छठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध निर्धारित किया है।
प्रारम्भ में आपकी मात्र दो रचनायें मानी जाती थीं - 'परमात्म-प्रकाश' (परमप्पयासु) एवं 'योगसार' (जोयसारु)। बाद में अपने अनुसंधानकार्य में डॉ. सुदीप जैन ने व्यापक शोधखोजपूर्वक दो ग्रंथ और निकाले हैं, वे हैं - 'अमृताशीति' एवं 'निजात्माष्टक'। इन चार ग्रंथों में से परमात्म-प्रकाश और योगसार अपभ्रंश-भाषा के ग्रंथ हैं, तथा 'अमृताशीति' संस्कृत-भाषा का और 'निजात्माष्टक' प्राकृत-भाषा का ग्रंथ है। इन सभी ग्रंथों पर टीकायें मिलती हैं, और वे प्रकाशित भी हैं।
आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान एवं योगसाधना के विषयों के निरूपण में आचार्य जोइंदु अति विशिष्ट स्थान रखते हैं, तथा पहले इनको मात्र अपभ्रंश-भाषा का कवि माना जाता था; किन्तु अब ये अपभ्रंश के साथ-साथ संस्कृत एवं प्राकृत-भाषा के अधिकारी विद्वान्-कवि सिद्ध होते हैं। आचार्य विमलसूरि
प्राकृत-भाषा में 'चरित-काव्य' ग्रंथ लिखने वाले कवियों और मनीषियों में आचार्य विमलसूरि का सर्वप्रथम स्थान है। आपकी रचना 'पउमचरियं' का जैन-रामकथा-साहित्य में वही स्थान है, जोकि वैदिक-परम्परा में वाल्मीकि रामायण का है। इनके द्वारा लिखित रामकथा जैन-परम्परा के अनुरूप तथा अतिकाल्पनिकता से परे व्यावहारिक धरातल पर भगवान् राम का प्रभावी-चरित्र प्रस्तुत करती है।
विमलसूरि का समय विद्वानों ने व्यापक ऊहापोह के बाद चौथी शताब्दी ईस्वी अनुमानित किया है। आचार्य विमलसूरि की दो रचनायें कही जाती हैं - पउमचरियं एवं हरिवंसचरियं। इनमें से 'पउमचरियं' ही विमलसूरि की असंदिग्ध कृति मानी जाती है। इस ग्रंथ में 118 पर्यों एवं सात अधिकारों में सम्पूर्ण रामकथा का समावेश
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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