Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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आचार्य रविषेण
जैन-रामकथा को संस्कृत-भाषा में प्रस्तुत करने वाले आचार्य रविषेण संस्कृत-भाषा में 'जैन-चरितकाव्य' लिखने वाले महत्त्वपूर्ण आचार्य हैं। आपके गण-गच्छ आदि का कोई उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु आपके नाम से प्रतीत होता है कि आप सेनसंघ के आचार्य थे। विद्वानों ने आपके गुरु का नाम आचार्य 'लक्ष्मणसेन' बताया है। आपके द्वारा रचित 'पदम्-चरितम्' में वर्णित प्रकृति और पर्यावरण के तत्त्वों के आधार पर आपको दक्षिण-भारतीय अनुमानित किया जाता है। आपने अपनी रचना विक्रम संवत् 734 के वैशाख मास के शुक्ल-पक्ष में पूर्ण बताई है। अत: इनका काल विक्रम की आठवीं शताब्दी असंदिग्धरूप से माना जा सकता है।
इनकी रचना यद्यपि आचार्य विमलसूरि के 'पउमचरियं' पर आधारित है, तथापि विषय-वस्तु, प्रतिपादन-शैली एवं भाषा आदि की दृष्टि से इसमें पर्याप्त मौलिकता समाहित है। छः खण्डों और 123 पर्यों में निबद्ध इस कथा-ग्रंथ में रामकथा का जैन-दृष्टि से विस्तृत वर्णन हुआ है। भाषिक तत्त्वों तथा काव्य-शास्त्रीय मानदण्डों के आधार पर यह किसी भी उत्कृष्ट संस्कृत-महाकाव्य के तुल्य माना जाता है। आचार्य जटासिंहनन्दि
‘वरांगचरित' नामक अतिविशिष्ट चरितकाव्य के द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त आचार्य जटासिंहनन्दि का उल्लेख अनेकों प्रतिष्ठित जैनाचार्यों ने आदर एवं बहुमान के साथ किया है। इससे आपकी प्रतिष्ठा और गरिमा का स्पष्ट अवबोध होता है। आपका नाम प्रायः 'जटाचार्य' मिलता है। कहीं-कहीं आपको 'जटिलाचार्य' या 'जटिलमुनि' के नाम से भी उल्लिखित किया गया है, किन्तु 'चामुण्डराय' ने आपको आचार्य 'जटासिंहनन्दि' के पूर्ण नाम से वर्णित किया है। प्राप्त उल्लेखों के अनुसार दक्षिण-भारत के कर्नाटक प्रान्त के 'कोप्पल' ग्राम में आपकी समाधि हुई थी। अत: आपने अपना जीवन दक्षिण-भारत में ही व्यतीत किया होगा। 'वरांगचरित' में प्राप्त वर्णनों के आधार पर भी आपके दाक्षिणात्य होने की पुष्टि होती है।
विद्वानों ने पौर्वापर्य साक्ष्यों के अनुशीलन के बाद आपका समय ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं आठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध निर्धारित किया है। आपकी एकमात्र रचना 'वरांगचरित' ही आपकी अक्षय यशोगाथा का प्रमाण है। विद्वानों ने इसे पौराणिक-महाकाव्य माना है। इसमें आपकी अपूर्व काव्य-प्रतिभा परिलक्षित होती है। आचार्य अकलंकदेव
बौद्धों के चरम प्रभाव के युग में जैन-दर्शन तत्त्वज्ञान एवं सिद्धान्तों की
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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