Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
View full book text
________________
के नायक होकर ग्रंथ-निर्माण एवं अन्य अनेकों पुनीत कार्यों के द्वारा समाज एवं राष्ट्र को नई दिशा प्रदान करते हुये 95 वर्ष, 10 माह एवं 15 दिन की दीर्घायु व्यतीत कर ईसापूर्व 12 में आपने समाधिमरण-पूर्वक स्वर्गारोहण किया।
यह निर्विवाद तथ्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द का मूल दीक्षानाम 'पद्मनन्दि' था तथा कोण्डकुण्डपुर के वासी होने के कारण इनका नाम 'कोण्डकुन्द' ही अधिक प्रचलित हुआ। सम्भवतः ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय पद्मनन्द्रि नाम के और भी मुनिराज, आचार्य रहे होंगे, अतः "कौन-से पद्मनन्दि?" - ऐसे प्रश्न के उत्तरस्वरूप 'कोण्डकुंडपुर वाले' - ऐसा प्रचलन रहा होगा। फिर धीरे-धीरे उनका यही नाम अधिक प्रचलित हो गया। प्राचीन शिलालेखों में उनका नाम 'कोण्डकुण्ड' अथवा 'कोण्डकुन्द' ही मिलता है, जो बाद में 'कुण्डकुन्द' और फिर 'कुन्दकुन्द' बन गया।
प्राप्त उल्लेखों के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द ने चौरासी (84) पाहुड-ग्रंथों की रचना की थी। इनमें से अधिकांश रचनायें आज उपलब्ध नहीं हैं। डॉ. ए.एन. उपाध्ये ने ऐसे 43 पाहुड-ग्रंथों के नाम खोजे हैं, जो आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा लिखित माने गये हैं, किन्तु इनमें से कोई भी प्राप्त नहीं होता। आज उपलब्ध कुन्दकुन्द-साहित्य में मात्र चौदह ग्रंथ ही ऐसे हैं, जो निर्विवादरूप से आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं के रूप में माने जाते हैं। वे हैं - 1. समयसार, 2. पवयणसार, 3. णियमसार, 4. पंचत्थिकायसंगहो, 5. दंसणपाहुड, 6. चरित्तपाहुड, 7. सुत्तपाहुड, 8. बोधपाहुड, 9. भावपाहुड, 10. मोक्खपाहुड, 11. लिंगपाहुड, 12. सीलपाहुड, 13 बारसअणुवेक्खा एवं 14. भत्तिसंगहो (इसमें सिद्धभक्ति आदि आठ भक्तियाँ संग्रहीत है)। इनके अतिरिक्त 'षट्खंडागम' के प्रथम दो खंडों पर रचित 'परिकर्म' नामक टीका', "तिरुक्कुरल' नामक नीतिग्रंथ, 'मूलाचार' एवं 'रयणसार' आदि ग्रंथ भी कुन्दकुन्द के द्वारा रचित माने जाते हैं; किन्तु इस बारे में सभी विद्वानों का एक मत नहीं है। आचार्य आर्यमंक्षु और आचार्य नागहस्ति
इन दोनों आचार्यों का नाम दिगम्बर एवं श्वेताम्बर - दोनों परम्पराओं में प्रतिष्ठित है। धवलाटीका में इन दोनों को 'महाश्रमण' और 'महावाचक' लिखा गया है। उस लेखन से यह स्पष्ट है 'आर्यमंक्षु' और 'नागहस्ति' ही 'महाश्रमण' और 'महावाचक' पदों से विभूषित थे, जो उनकी सिद्धान्त-विषयक ज्ञान-गरिमा का परिचायक है। 'जयधवलाटीका' के मंगलाचरण के पद्य 7-8 में वीरसेन आचार्य ने लिखा है कि जिन आर्यमंक्षु और नागहस्ति ने गुणधर आचार्य के मुखकमल से विनिर्गत 'कसायपाहुड' की गाथाओं के समस्त अर्थ को सम्यक्प्रकार ग्रहण किया, वे हमें वर प्रदान करें। चूर्णिसूत्र-रचयिता यतिवृषभ आर्यमंक्षु के शिष्य और नागहस्ति
0038
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ