Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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एक जैन - लेखक की मान्यता है कि जनसंख्या के सरकारी आँकड़ वास्तविकता से बहुत दूर हैं। 54 यह मान्यता कुछ सीमा तक सत्य भी प्रतीत होती है; क्योंकि अधिकांश जैन- मतानुयायी अपना उपनाम गोत्र, जाति, स्थान इत्यादि के नाम पर लगाते हैं। जिससे उनके धर्म का सही ज्ञान नहीं हो पाता है। जबकि जनगणना वाले 'जैन' उपनाम लिखनेवालों को ही जैनधर्म का अनुयायी मानते हैं, अन्य को नहीं। अनेक ऐसी जातियाँ है, जो हिन्दू व जैन दोनों मतों को माननेवाली हैं। उन्हें जैनों के स्थान पर हिन्दूधर्म में ही सम्मिलित कर लिया जाता है।
जैनधर्म के विस्तार - विषयक विवरण से यह भली-भाँति स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल से लेकर आज तक जैनधर्म भारत में चहुँदिश फल-फूल रहा है। वैसे तो समय के साथ बदलती परिस्थितियों में जैन-मतानुयायियों में सामाजिक व धार्मिक दर्शन के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन आये है; किन्तु 20वीं सदी सबसे अधिक चुनौती - भरी सदी रही है। इस संवेदनशील समय में दिगम्बर जैन समाज अपनी मान्यताओं को दृढ़ बनाने हेतु संघर्षरत रहा है। समय के साथ इन्होंने परिवर्तन भी किये हैं। दिगम्बर जैन समाज के विभिन्न संगठन अपने धर्म को सुसंगठित करने का प्रयास कर रहे हैं। इन संगठनों के माध्यम से दिगम्बर जैन समाज में व्याप्त बुराईयों को समाप्त कर समाज-सुधार के प्रयास किये जा रहे हैं। जैनधर्म की मूल - शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार हेतु साहित्य, समाचार-पत्र व पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जा रहा है। पुराने तीर्थ क्षेत्रों, अतिशयक्षेत्रों, सिद्ध-क्षेत्रों व मन्दिरों का पुनरुद्धार इन संगठनों के माध्यम से किया जा रहा है। सम्पूर्ण भारत का दिगम्बर जैन समाज सबसे अधिक संगठित दिखाई देता है। अनेक जातियों में विभाजित होने के उपरान्त भी दिगम्बर जैन समाज धर्म व दर्शन के क्षेत्र में एकताबद्ध दिखाई देता है।
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सन्दर्भ- विवरणिका
पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैनधर्म, भारतीय दिगम्बर जैनसंघ मथुरा, चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ 1-2. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास, श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ 1-2.
डॉ. मानमल जैनकोटा, जैन समाज का धर्म व दर्शन के क्षेत्र में योगदान (अप्रकाशित शोध-लेख ).
आचार्य जिनसेन, हरिवंश पुराण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ 8.
वही ।
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ