Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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वैसे तो महावीर के निर्वाण के पश्चात् कुछ समय तक जैनधर्म संगठित ही रहा। किन्तु बाद में विभिन्न मत-मतान्तर पनपने लगे थे, तथा जैनधर्म प्रमुख दो सम्प्रदायों क्रमशः 'दिगम्बर' व 'श्वेताम्बर' में विभाजित हो गया। दिगम्बरों की यह मान्यता है कि उन्होंने मूलधर्म को सुरक्षित रखा है, जबकि श्वेताम्बरों ने समयानुसार इसमें परिवर्तन किये हैं। ऐसी मान्यता है कि महावीर स्वामी के बाद सन् 80 ईस्वी में श्वेताम्बर-पंथ अस्तित्व में आया।35 जैनधर्म का विस्तार
__ आज सारे विश्व में जैनधर्म के अनुयायी भारी संख्या में हैं, किन्तु जैनधर्म का विकास मुख्यरूप से भारत में ही हुआ। व्यवसाय व वाणिज्य के माध्यम से जैनधर्म का प्रचार व प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हुआ। इसकी प्राचीनता के आधार पर जैनमतानुयायी जैनधर्म को भारत को मूलधर्म मानते हैं। इनकी मान्यता है कि जैनधर्म और जैनसमाज दोनों ही ऐतिहासिक काल से भारत के मूलधर्म एवं समाज रहे हैं। आर्यों के आगमन के पूर्व जो जातियाँ यहाँ रहती थीं, वे सब श्रमणधर्म की उपासक थीं, अहिंसाप्रिय थीं तथा शान्त-स्वभाव की थीं। इसके उपरान्त भी जैनधर्म वैदिकधर्म के साथ अस्तित्व में रहा। अतः जैनधर्म का सम्पूर्ण देश में विस्तार होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
उत्तर भारत के विभिन्न प्रान्तों में जैनधर्म की स्थिति काफी सुदृढ़ थी। विभिन्न इतिहासज्ञों के कथन से पता चलता है कि बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् प्रथम सदी में उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों में जैन-समुदाय प्रमुख था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ईस्वी सन् की सातवीं सदी में भारत आया था। वह अपने यात्रा-विवरण में नालन्दा के विहार का वर्णन करते हुये लिखता है कि "निर्ग्रन्थ (जैन) साधु ने, जो ज्योतिष-विद्या का जानकार था, नये भवन की सफलता की भविष्यवाणी की थी।" इससे प्रकट है कि उस समय मगध-राज्य में जैनधर्म फैला हुआ था। जैनधर्म की उन्नति का सूचक दूसरा मुख्यप्रमाण अशोक की प्रसिद्ध घोषणा है, जिसमें निर्ग्रन्थों को दान देने की आज्ञा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अशोक के शासनकाल में जो श्रमण 'निर्ग्रन्थ' के नाम से विख्यात थे, वे इतने योग्य व प्रभावशाली थे कि अशोक की राज-घोषणा में उनका मुख्य उल्लेख करना आवश्यक समझा गया था।
उत्तर-भारत में जैनधर्म की प्रगति की दृष्टि से 'कलिंग' का नाम उल्लेखनीय है। दूसरी शताब्दी ईसापूर्व का प्रसिद्ध खारवेल शिलालेख कलिंग में जैनधर्म की प्रगति को प्रमाणित करता है। श्री रंगास्वामी आयंगर के मतानुसार बौद्धधर्म के प्रचार के प्रति अशोक ने जो उत्साह दिखलाया, उसके फलस्वरूप जैनधर्म का केन्द्र मगध से उठकर कलिंग चला गया, जहाँ ह्वेनत्सांग के समय तक जैनधर्म का भारी प्रभाव था। यद्यपि ईसापूर्व 400 में नंद राजा द्वारा 'कलिंग-जिन' की प्रतिमा उड़ीसा में
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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