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स्रष्टा हो कर। स्रष्टा हम कितने ही बड़े हो जाएं, हमारी सृष्टि छोटी ही रहेगी। क्योंकि सृष्टि के लिए हमें शरीर का उपयोग करना पड़ेगा। इन्हीं हाथों से तो बनाओगे न मूर्ति! ये हाथ ही छोटे हैं। इन हाथों से बनी मूर्ति कितनी सुंदर हो तो भी छोटी रहेगी। इसी मन से तो रचोगे न काव्य ! यह मन ही बहुत क्षुद्र है। इस मन से कितना ही सुंदर काव्य रचो, आखिर मन की ही रचना रहेगी। तो थोड़ी-सी किरण तो उतरेगी, लेकिन पूरा परमात्मा नहीं खयाल में आएगा।
साक्षी! साक्षी में न तो शरीर की जरूरत है, न मन की जरूरत है। तो सब सीमाएं छूट गईं - शुद्ध ब्रह्म, जो तुम्हारे भीतर छिपा है, उसका सीधा साक्षात्कार हुआ। उस साक्षात्कार में तुम ईश्वर हो । ईश्वर को पाने का उपाय है : दृश्य की तरह ईश्वर को कभी मत खोजना, अन्यथा भटकते रहोगे। क्योंकि दृश्य ईश्वर बनता ही नहीं। ईश्वर द्रष्टा है।
'सबको बनाने वाला, सबको जानने वाला ईश्वर है। यहां दूसरा कोई नहीं है। ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह पुरुष शांत है।'
फिर कैसी अशांति ? जब एक ही है, फिर कैसी अशांति ? द्वंद्व न रहा, द्वैत न रहा, दुविधा नही, दुई न रही- फिर कैसी अशांति ? कलह करने का उपाय न रहा । तुम ही तुम हो, मैं ही मैं हूं - स्व ही है ! एकरस सब हुआ, तो शांति अनायास सिद्ध हो जाती है।
'उसकी सब आशाएं जड़ से नष्ट हो गई हैं। '
जिसने ऐसा जाना कि ईश्वर ही है, अब उसकी कोई आशा नहीं, कोई आकांक्षा नहीं। क्योंकि अब अपनी आकांक्षा ईश्वर पर थोपने का क्या प्रयोजन? वह जो करेगा, ठीक ही करेगा। फिर जो हो रहा है ठीक ही हो रहा है। जो है, शुभ है।
जब भी तुम आशा करते हो, उसका अर्थ ही इतना है कि तुमने शिकायत कर दी। जब तुमने कहा कि ऐसा हो, उसका अर्थ ही है कि जैसा हो रहा है उससे तुम राजी नहीं । तुमने कहा, ऐसा हो - उसमें ही तुमने शिकायत कर दी उसमें ही तुम्हारी प्रार्थना नष्ट हो गई।
प्रार्थना का अर्थ है जैसा है वैसा शुभ जैसा है वैसा सुंदर जैसा है वैसा सत्य; इरासे अन्यथा की कोई मांग नहीं। तब तुम्हारे भीतर प्रार्थना है। आस्तिक का अर्थ है जैसा है, उससे मैं रारिपूर्ण हृदय से राजी हूं। मेरा कोई सुझाव नहीं परमात्मा को कि ऐसा हो कि वैसा हो । मेरा सुझाव क्या अर्थ रखता है? क्या मैं परमात्मा से स्वयं को ज्यादा बुद्धिमान मान बैठा हूं। जब एक ही है, तो जो भी हो रहा है ठीक ही हो रहा है। और जब सभी ठीक हो रहा है तो अशांति खो ही जाती है।
अंतर्गलितसर्वाश...
ऐसे व्यक्ति के भीतर से आशा, निराशा, वासना, आकांक्षा सब गलित हो जाती है, विसर्जित हो जाती है। फिर आसक्ति का भी कोई उपाय नहीं बचता। जब एक ही है, तो कौन करे आसक्ति, किससे करे आसक्ति ? जब एक ही है, तो मन के लिए ही ठहरने की जगह नहीं बचती । उस एक में मन ऐसे खो जाता है जैसे धुएं की रेखा आकाश में खो जाती है।
मूल फूल को पूछता रहा ऊपर कुछ पता चला?