Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय दीपचंद पाठक प्रवर, पय वंदी अवदात । सार श्रमण गुण भावना, गाइश प्रवचन मात ॥२॥ शब्दार्थ-पाठक-उपाध्याय । प्रवर-अच्छे । पय-चरण ।वंदी-वंदना करके । अवदात -- उज्ज्वल । श्रमण–साधु । गाइश-गाऊंगा। . भावार्थ-जिन्होंने प्रभु तथा प्रभुवाणी की महिमा बतलाई है, उन गुरुदेवों की स्मृति व कृतज्ञता की सूचक है। अथवा व्यवहारोचित भी है । ग्रंथकर्ता स्व गुरू दीपचंद नामक पाठक (उपाध्याय) के पवित्र चरणोंमें नमस्कारकरके उत्तम मुनिजनों के गुणों की भावना रूप प्रवचन-माताओं का वर्णन-स्तवना करनाचाहते हैं । जननी पुत्र शुभंकरी-तेम ए पवयण माय । चारित्र गुण गण वर्द्धनी-निर्मल शिवसुख दाय ॥३॥ शब्दार्थ-शुभंकरी-भला करने वाली। तेम ए-वैसे ही यह । पक्यणमायप्रवचन माता । वद्धनी-बढ़ाने वाली। शिवसुख-दाय मोक्ष के सुख देने वाली । भावार्थ...जैसे माता पुत्र का हित करने वाली होती है। वैसे ही यह प्रवचन माता चारित्र रूपी पुत्र-रत्न की जननी, हितकारिणी, गुणसमूह को बढ़ाने वाली, और निर्मल मोक्ष की देने वाली है। भाव अयोगी करण रुचि-मुनिवर गुप्ति धरंत । जइ गुप्ते न रही सके, तो समिते विचरंत ॥४॥ शब्दार्थ-अयोगी-योग रहित । करण रुचि --करने की इच्छा। जइ-यदि । भावार्थ 'मन, वचन, काया के योगों से निवृत होने की रुचि वाले मुनि गुप्तियों को धारण करते हैं। अर्थात् तीनों योगों को अपने वश में रखते हैं। मन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104