________________
१२
भी निस्पृह और निराग रहते हुए विचरते हैं । वे विषय तथा विकारोंसे रहित होकर मस्त हस्ती की तरह विचरने वाले मुनि, महा भाग्यशाली हैं ॥ १० ॥ परमानन्द रस अनुभवी जी रे, निज गुण रमता धीर ।
'देवचन्द्र' मुनि वदतां जीरे, लहिये भवजल तीर ॥११॥ मु० शब्दार्थ...परमानंद= उत्कृष्ट आनंद । अनुभवी = अनुभव करके । निजगुण = आत्मा के गुण । लहिये = पाइये । भवजल तीर = संसार का किनारा ।
भावार्थ- पौद्गलिक पदार्थोकी प्राप्ति और उनके सेवनसे जो सुख है, वह भी दुख परिणामी होने के नाते तुच्छ, क्षणिक ओर बाह्यानन्द है ! आत्मिक गुणों में - रमण करना ही परम आनन्द है । उस परमानन्द रस का अनुभव करते हुए - वीर पुरुष संसार सागर का किनारा पाते हैं। ऐसे सत्पुरुषों को श्री देवचन्द्रजी - बन्दना करते हैं ॥११॥
शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान में रसानन्द लेने वाले अनुभवी मुनि अपने आत्म -गुणों में ही रमते हुए स्थिर रहते हैं ऐसे मुनियों को बन्दन करने वाले श्रद्धालु - जन भी संसार सागर का किनारा पा जाते हैं ।
Jain Educationa International
अष्ट प्रवचन माता सञ्झाय
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org