Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ मनोगुप्ति की ढाल ४३ शब्दार्थ-सविकल्प विकल्प सहित। निर्विकल्प = विकल्प रहित-स्थिर । भावार्य-सविकल्पकदशा-विकल्प का अर्थ है भेद । एक के बाद एक पदार्थ का चिंतन करना। ऐसे विचारों को श्रेणी को विकल्प दशा कहते हैं। वह अनित्य, अशरण आदि षोडश भावानाओं में से किसी एक भावना का भाना, तथा जीवादिक नव तत्त्वों में से किसी एक का स्वरूप चिंतन, ज्ञान, दर्शन-चारित्र आदि पृथक-पृथक गुणों का मनन, तीन मनोरथों में से कोई एक मनोरथ का विचार करने से होती है। यह विकल्प भावना साधु के लिये गुण वाली होने पर भी ध्यानी मुनि को नहीं सुहाती। यद्यपि यह दशा अशुभ में से निकाल कर शुभ में ले जाती है इसलिये गुणदायिनी है। परंतु जो मुनि निर्विकल्प अवस्था को चाहता है, उसे यह अच्छी नहीं लगती। निर्विकल्प चिंतन में आत्मा के गुणों को गुणी से अभिन्न माना जाता है। जो आत्मा है वही ज्ञान है, और जो ज्ञान है वही आत्मा है। रत्नों की ज्योति रत्नों से भिन्न नहीं है। इस अभेदपरक चिंतन को अखंडात भी कह सकते हैं। निर्विकल्प दशा से ही आत्मानन्द की प्राप्ति होती है अतः मुनि उसीके रस का अनुभव करे। अर्थात् मन के विकल्पों को हटाकर चितवृत्ति को आत्मोंपयोग में केन्द्रित करे। शुक्ल ध्यान श्रुतावलंबनी रे, ए पण साधन दाव । वस्तु धर्म उत्सर्ग*में रे, गुण गुणी एक स्वभावोरे--८ मु. शब्दार्थ-श्रुतावलंबन=ज्ञान का सहारा। भावार्थ- शुक्ल ध्यान और श्रुत का अवलंबन भी सिद्धि प्राप्ति के लिये अवश्य साधन हैं । परंतु उत्सर्ग मार्ग में तो वस्तु धर्म ही साधन है । अर्थात् गुण एवं गुणी एक स्वभाव वाले हैं। शुक्ल ध्यान और श्रुत का आत्मा से कोई भेद है ही नहीं।-८ *उद्यरंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104