Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 61
________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय बीर्य सहायी रे आतम धर्मनो-अचल सहज अप्रयासो जी। ते परभाव सहायी किम करे-मुनिबर गुण अबासो जी।६।गा ___ शब्दार्थ--सहायी सहायक। अप्रयास-प्रयत्न के बिना। गुणआवास= गुणों के धर। भावार्थ-वीर्य-आत्मा का शक्ति गुण है। वह आत्म-धर्म का सहायक है यह कार्य स्वाभाविक स्थिर तथा अप्रयत्न जन्य है । करणवीर्य अथात् इन्द्रिय जनित वीर्य, (प्रवृति) चल, कृत्रिम, तथा प्रयासजन्य है। इसलिये गुणों के आवास मुनि अपने आत्म-वीर्य को पुद्गलों का सहायक क्यों करे ? अर्थात् उसे आत्म धर्म में ही लगावे। आत्मा का स्वभाव में स्थिरता रहना सहज है उसे छोड़कर शरीर एवं इंदियजन्य प्रयास रूप परभाव प्रवृत्तियाँ में मुनि क्यों प्रवृत्त हो। अर्थात् नहीं होते।-६ खती मुत्ति युति अकिंचनी, शौच ब्रह्म धर धीरोजी। विषम परीषह सैन्य विदारवा, वीर परम सौंडीरोजी ॥७मु०॥ शब्दार्थ-खती-क्षमा। मुत्ति=निर्लोभता। अकिचनी-अपरिग्रही । शौच आंतरिक पवित्रता । ब्रह्मधर ब्रह्मचारी विषम-कठिन । सौंडीर= शूरवीर ! भावार्थ-क्षमाशील, निर्लोभी, अकिंचनी ( परिग्रह रहित ) पवित्र, ब्रह्मचारी, और धीर मुनि परीषहों की सेना को जीतने के लिये परम वीर होते हैं ॥७॥ कर्म पडल दल क्षय करवा रसी, आतम ऋद्धि समृद्धोजी। देवचन्द्र जिन आणा पालता, वंदो गुरु-गुण वृद्धो जी ॥८मु०॥ शब्दार्थ-कर्म पडल-कर्मो के परदे । गुणवृद्ध=गुणोंसे महान् ।। भावार्थ-कर्मो के आवर्ण समूह को क्षय करने के इच्छुक, आत्म-गुणों की ऋद्धि से समृद्ध, जिनाज्ञा के पालक, गुणों से वृद्ध, श्री सद्गुरु को वंदन करने के लिये श्री देवचन्द्रजी महाराज कहते हैं ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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