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ज्ञानार्णव में अष्ट प्रवचनमाता
हों ऐसे मार्ग में दया से आर्द्र चित्त होकर जीवों की रक्षा करता हुआ धीरे-धीरे गमन करे, उस मुनि के तथा चलने से पहिले ही जिसने युग ( जूड़े ) परिमाण ( चार हाथ ) मार्ग को भले प्रकार देख लिया हो और प्रमादरहित हो ऐसे मुनि के इर्यासमिति कही गई है ।
धूर्त ( मायावी ) कामी, मांसभक्षी, चौर, नास्तिकमतो, चार्वाकादि से व्यवहार में लाई हुई भाषा तथा संदेह उपजानेवाली, व पाप संयुक्त हो ऐसी भाषा बुद्धिमानों को त्यागनी चाहिये । तथा वचनों के दशदोष रहित सूत्रानुसार साधुपुरुषों के मान्य हो ऐसी भाषा को कहने वाले मुनि के उत्कृष्ट भाषासमिति होती है ।
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कर्कश, परुष, कटु, निष्ठुर परकोपी, छेद्यांकुरा, मध्यकृशा; अतिमानिनी भयंकरी, और जीवों की हिंसा कराने वाली, ये दश दुर्भाषा हैं । इनको छोड़े तथा हितकारी, मर्यादासहित असंदिग्ध वचन बोले उसी मुनि के भाषासमिति होती है ।
जो उद्गमदोष १६, उत्पादन दोष १६, एषणादोष १०, धुआं, अंगार प्रमाण संयोजन ये ४ चार मिलाकर ४६ दोष रहित तथा मांसादिक १४ मलदोष और अन्तराय शंकादि से रहित, शुद्ध, काल में पर के द्वारा दिया हुआ, बिना उद्देशा हुआ और याचना रहित आहार करे उस मुनि के उत्तम एषणा समिति कही गई है । इन दोषादिकों का स्वरूप ( आचार वृति ) आदिक ग्रन्थों से जानना ।
जो मुनि शय्या, आसन; उपधान, शास्त्र और उपकरण आदि को पहिले भले
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प्रकार देखकर फिर उठावे अथवा रखे उसके तथा बड़े यत्न से ग्रहण करते हुए के
साधु के अविकल ( पूर्ण ) आदान निक्षेपण समिति
तथा पृथ्वी पर धरते हुए स्पष्टतया पलती है ।
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