Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 89
________________ ८. अष्ट प्रगचन माता सज्झाय का उपघात करनेवाला न हो। सम अर्थात विषम न हो ओर तृष्णादिसे आच्छादित न हो तथा थोड़े काल का अचित्त हुआ हो, ऐसे स्थान में उच्चार आदि त्याज्यः पदार्थों को व्युत्सर्जन करे, यह अग्निम गाथा के साथ अन्वय करके अर्थ करना ॥ १७ ॥ जो स्थान विस्तृत हो, बहुत नीचे तक अचित्त हो, गामादि के अति समीप न हो, मूषक आदि के बिलों से रहित हो तथा त्रस प्राणी और बीज आदि से वर्जित हो, ऐसे स्थान में उच्चार आदि का त्याग करे ॥ १८ ॥ ये पाँच समितियाँ संक्षेप से वर्णन की गयी हैं । इस के अनन्तर तीनों गुप्तियों का स्वरूप अनुक्रम से वर्णन करता हूं॥ १६ ॥ ___ सत्त्या, असत्या, उसी प्रकार सत्या मृषा और चतुर्थी असत्यामृषा ऐसे चार प्रकार की मनोगुप्ति कहो है ॥ २० ॥ ... संयम शील म नि संरम्भ, समारम्भ और आरम्भमें प्रवृत्त मन को निवृत्त करेउस की प्रवृत्ति को रोके ॥ २१ ॥ सत्यवाग् गुप्ति, मृषावागुप्ति, तद्वत सत्यामृषावाग्गु प्ति और चौथी असत्यामृषावागु प्ति, इस प्रकार वचन गुप्ति चार प्रकारसे कही गयी है ॥ २२ ॥ संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत हुए वचन को संयमशील साधु निवृत करे ॥२३॥ ___ स्थान में, बेठने में तथा शयन करने में, लंघन और प्रलंघन में एवं इन्द्रियों को शब्दादि विषयों के साथ जोड़ने में यतना रखनी-विवेक रखना चाहिए ॥ २४॥ प्रयत्नशील यति सरम्भ, समारम्भ, और आरम्भ में प्रबृत हुई काया-शरीर को निबुत करे अर्थात आरम्भ समारम्भ आदि में प्रबृत न होने दे ॥ २५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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