Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचंद्र ग्रंथमाला पुष्प-२ श्रीमद् देवचन्द्र सज्झायमाला भाग-२ अष्ट प्रवचनमाता. सज्झायसार्थ सम्पादक अगरचंद नाहटा प्रकाशक :भंवरलाल नाहटा व्यवस्थापक-श्रीमद् देवचन्द्र ग्रंथमाला ४ जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता-७ श्रीमद् देवचन्द्र निर्वाण तिथि भाद्रकृष्णा १५ सं० २०२० मूल्य०-५० नये पैसे Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचचंद ग्रंथमाला पुष्प-२ श्रीमद् देवचंद्र सज्झायमाला भाग---? [अष्ट प्रवचनमाता सज्झायसार्थ सम्पादक अगरचंद नाहटा प्रकाशक :भंवरलाल नाहटा व्यवस्थापक-श्रीमद् देवचन्द्र ग्रंथमाला ४ जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता-७ भाद्रकृष्णा १५ सं० २०२० मूल्य०-५० न० प० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द श्रीमद् देवचन्द्र ग्रन्थमाला का द्वितीय पुष्प पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जारहा है । इस सज्झाय का गुजराती अनुवाद बहुत वर्ष पहले प्रकाशित हुआ था। हिन्दी पाठकों को भी इस महत्पपूर्ण रचना का लाभ 'मिले, इस दृष्टि से श्री नेमीचन्द्र जैन से हिन्दी में भावार्थ लिखवाया गया। उसमें कुछ त्रुटियां रहजना भी संभव है। नित्य विनयमणि जीवन जैन लाइब्रेरी,कलकत्ता के, ग्रन्थों में से इस रचना की अर्थ सहित हस्तलिखित प्रति प्राप्त होने से उसको भी इस ग्रन्थ में प्रकाशित किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र के २४वें अध्ययन से अष्ट प्रवचन माता विषयक २७ गाथाओं का अनुवाद व दिगम्बराचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव से भी एतद्विषयक श्लोकों का अनुवाद देने के साथ साथ अन्त में परमयोगिराज श्री आनन्दघनजी महाराज कृत पाँच समिति की ढालें सद्गुरु शिरोमणि युगप्रवर श्री सहजानन्दजी महाराज द्वारा प्राप्त कर प्रकाशित की जा रही है। ___ आशा है जैन साधु- साध्वी इस रचना का विशेष मनोयोग से स्वाध्याय करके और श्रावक श्राविका गण भी इसे पढ़कर जैन-मुनि जीवन के रहस्य से अवगत होंगे। थोड़े ही दिनों में दूसरा भाग व शांत सुधारस भी पाठकों के समक्ष उपस्थित किया जायगा। ___ श्री धरमचन्द्र जी गोलछा ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में १०१) रुपया देने की सूचना दी है, अतः आप धन्यवादाह हैं। भंवरलाल नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनिजी __ -अगरचंद नाहटा जैन धर्म के अनुसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोज्ञ-मार्ग है, जो व्यक्ति अपने जीवन में इस रत्नत्रयो को जितने परिमाण में आराधना करता है वह उतना ही मोक्ष के समीप पहुंचता है, मानव-जीवन का उद्देश्य या चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना ही है , मनुष्य के सिवा कोई भी अन्य प्राणी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिये मनुष्य जीवन को पाकर जो भी व्यक्ति उपरोक्त रत्नत्रयी की आराधना में लग जाता है उसी का जीवन धन्य है, यद्यपि इस पंचम काल में इस क्षेत्र से सीधे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती फिर भी अनन्त काल के भव-भ्रमण को बहुत ही सीमित किया जा सकता है, यावत् साधना सही और उच्चस्तर की हो तो भवान्तर (दूसरे भव में) भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है। चाहिये संयमनिष्ठा और निरन्तर सम्यक्साधना ।यहाँ ऐसे ही एक संयमनिष्ठ मुनि महाराज का परिचय दिया जा रहा है जिन्होंने अपने जीवन में रत्नत्रयी की आराधना बहुत ही अच्छे रूप में की है, कई व्यक्ति ज्ञान तो काफी प्राप्त कर लेते हैं पर ज्ञान का फल विरति है उसे प्राप्त नहीं कर पाते और जब तक ज्ञान के अनुसार क्रिया या चारित्र का विकास नहीं किया जाय वहां तक मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता-'ज्ञान कियाभ्यां मोक्षः । गणिवर्य बुद्धिमुनिजी के जीवन में ज्ञान और चारित्र इन दोनों का अद्भुत सुमेल हो गया था यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है, आपका जन्म जोधपुर प्रदेशान्तर्गत गांगाणी तीर्थ के समीपवर्ती बिलारे गांक में हुआ था। चौधरी (जाट) वंश में जन्म लेकर भी संयोगवश आपने जैन-दीक्षा ग्रहण की । आपके पिता का स्वर्गवास आप के बचपन में ही हो गया था और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनिजी आपकी माता ने भी अपना अन्तिम समय जान कर इन्हें एक मठाधीश-महंत को सौंप दिया था, वहां रहते समय सुयोगवश पन्यास श्री केसरमुनिजी का सत्समागम आपको मिला और जैन मुनि की दीक्षा लेने की भावना जाग्रत हुई, पन्यासजी के साथ पैदल चलते हुये लूणी जंकशन के पास जब आप आये तो सं० १६६३ में ६ वर्ष की छोटी . सी आयु में हो आप दीक्षित हो गये आपका जन्म-नाम नवल था, अब आपका दीक्षानाम बुद्धिमुनि रखा गया वास्तव में यह नाम पूर्ण सार्थक हुआ आपने अपनी बुद्धि का विकास करके ज्ञान और चारित्र की अद्भुत आराधना की। थोड़े वर्षों में ही आप अच्छे विद्वान् हो गये और अपने गुरुश्री को ज्ञानसेवा में सहयोग देने लगे । तत्कालोन आचार्य जिनयशःसूरिजी और अपने गुरू केसरमुनिजी के साथ सम्मेतशिखरजी की यात्रा करके आप महावीर निर्वाण-भूमि-पावापुरी में पधारे आचार्यश्री का चतुर्मास वहीं हुआ और ६१ उपवास करके वे वहीं स्वर्गवासी हो गये, तदनंतर अनेक स्थानों में विचरते हुये आप गुरुश्री के साथ सूरत पधारे, वहां गुरुश्री के अस्वस्थ होने पर आपने उनकी बहुत सेवा-सुश्रूषा की इसके फलस्वरूप वे स्वस्थ हो गये और बंबई जाकर चतुर्मास किया उसी चातुर्मास में कार्तिक शुक्ला ६ को पूज्य केसरमुनिजी का स्वर्गवास हो गया। करीब २० वर्ष तक आपने गुरुश्री को सेवा में रहकर ज्ञानवृद्धि और संयम और तप, जो मुनि जीवन के दो विशिष्ट गुण हैं, में आपने अपना जोवन लगा दिया, आभ्यंतर तप के ६ भेदों में वैयावृत्य सेवा में आपकी बड़ी रूचि थी, आपके गुरु श्री के भ्राता पूर्णमुनिजी के शरीर में एक भयंकर फोड़ा हो गया उससे मवाद निकलता था और उसमें कीड़े पड़ गये थे दुर्गन्ध के कारण कोई आदमी पास भी बैठ नहीं पाता था, पर आपने ६ महीनों तक अपने हाथों से उसे धोने मल्हम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनि जी पट्टी करना आदि का काम सहर्ष किया। इससे पूर्ण मुनिजी को बहुत शांता पहुंची और स्वस्थ हों गये । आगमों का अध्ययन करने के लिए आपने संपूर्ण आगमों का योगोद्वहन किया इसके बाद सं० १९६५ में सिद्धक्षेत्र पालीताना में आचार्य श्रीजिनरत्नसूरिजी ने आपको गणिपद से विभूषित किया । मारवाड़, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र और पूर्व प्रदेश तक में आप निरंतर विचरते रहे कच्छ और मारवाड़ में तो आपने कई मंदिर - मूर्तियों एवं पादुकाओं की प्रतिष्ठा भी करवाई यथा जिनरत्वसूरिजी की आज्ञा से भुज में दादा जिनदत्त सूरिजी की मूर्ति एवं अन्य पादुकाओं की प्रतिष्ठा बड़ी धूमधाम से करवाई वहाँ से मारवाड़ के चूड़ा ग्राम में आकर जिन प्रतिमा, नूतन दादावाड़ी ओर जिनदत्तसूरजोको मूर्तिप्रतिष्ठा करवाई चूडाचातुर्मासिके समय ही आपको जिनरत्नसू जो के स्वर्गवास का समाचार मिला आचार्यश्री की अंतिम आज्ञानुसार आपने जिन ऋद्धिसूरिजी के शिष्य गुलाबमुनिजी की सेवा के लिए बंबई बिहार किया और उनको अंतिम समय तक अपने साथ रख कर उनकी खूब सेवा की, उनके साथ गिरनार, पालीताना आदि तीर्थों की यात्रा को इसी बीच उपाध्याय लब्धि मुनिजी का दर्शन एवं सेवा करने के लिये आप कच्छ पधारे और वहाँ मंजलग्राम में नये मंदिर और दादावाड़ी की प्रतिष्ठा उपाध्यायजी के सान्निध्य में करवाई, इसी तरह अंजार ( कच्छ ) के शांतिनाथ जिनालय के ध्वजादंड एवं गुरुमूत्ति आदि को प्रतिष्ठा करवाई । वहाँ से विचरते हुये पालीताना पधारे असातावेदनीय के उदय से आप अस्वस्थ रहने लगे फिर भी ज्ञान और संयम की आराधना में निरंतर लगे रहते थे । कदम्बगिरि के संघ में सम्मिलित होकर सौभागचन्द जी मेहता को आपने संघपति की माला पहनाई और तदनन्तर उपाध्यायजी की आज्ञानुसार अस्वस्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनिजी होते हुए भी भुजकच्छ के संभवनाथ जिनालय को अंजनशलाका और प्रतिष्ठा उपाध्याय जी के सान्निध्य में करवाई फिर पालीताना पधारे और सिद्धगिरि पर स्थित दादाजी के चरणपादुकाओं को प्रतिष्ठा और जिनदत्तसूरि सेवा संघ के अधिवेशन में सम्मिलित हुए व श्री गुलाबमुनिजी काफी दिनों से अस्वस्थ थे। आपने उनकी सेवा में कोई कसर नहीं रखी, पर उनकी आयुष्य की समाप्ति का अवसर प्रा चका था। अत: सं० २०१७ वैसाख सुदी १० महावीर केवलज्ञान तिथि के दिन गुलाबमुनिजी स्वर्गस्थ हो गये। आपका स्वास्थ्य पहले से ही नरम चल रहा था और काफी अक्ति आ गई थी। तलहटी तक जाने में भी आप थकजाते थे। पर सं० २०१८ के मिगसर से स्वास्थ और भी गिरने लगा और वैद्यों के दवा से भी कोई फायदा नहीं हुआ तो आप को डोली में विहार करके हवा-पानी बदलने के लिए अन्यत्र चलने को कहा गया। पर आपने यही कहा कि मैं डोली में बैठकर कभी विहार नहीं करूंगा। फाल्गुन महीने से ज्वर भी काफी रहने लगा । और वैद्यों ने आपको श्रम करने का मना कर दिया । पर आप ज्वर में भी अपने अधूर' कामों को पूरा करनेलिखने आदि में लगे रहते थे। चिकित्सक को आपने यही उत्तर दिया कि यह तो मेरी रुचि का विषय है, लिखना बंद कर देने पर तो और भी बीमार पड़ जाऊँगा । वैद्यों की दवा से लाभ होता न देखकर आपसे डाक्टरी इलाज करने का अनुरोध किया गया, तो आपने कहा कि मैं कोई प्रवाही दवा-इन्जेक्शनमिक्सचर आदि नहीं लूँगा। तुम लोग आग्रह करते हो तो फिर सूखी दवा ले सकता हूं। दो तीन महीने दवा लो भी; पर कोई फायदा नहीं हुआ । तब श्री प्रतापमल जी सेठिया और अचरतलाल शिवलाल ने बम्बई से एक कुशल वैद्य को भेजा । पर असाता वेदनीय कर्मोदय से कोई भी दवा लागू नहीं पड़ी। आप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय गणिवर्य बृद्धिमुनिजी अपने शिष्यों को हित की शिक्षा देते रहते थे। शिष्यों ने कहा कि उक सूत्र के गुजराती अनुवाद का मुद्रण अधूरा पड़ा है । उसे कौन पूरा करेगा ? प्रत्युत्तर में आपने कहा-इसकी चिन्ता मत करो, जहां तक वह पूरा नही होगा; मेरी मृत्यु नहीं होगी। आप का दृढ़ निश्चय और भविष्यवाणी सफल हई और आपके स्वर्गवास के दो-तीन दिन पहले ही कल्पसूत्र छप कर आ गया और उसे दिखाने पर आपने उसे मस्तक से लगाया ऐसी आपकी अपुर्व ज्ञान भक्ति थी। श्रावण सुदी पंचमी से आपकी तबियत और भी बिगड़ने लगी पर आप पूर्ण शाँति के साथ उत्तराध्ययन, पद्मावती सज्झाय, प्रभंजना व पंचभावना को सज्झाय आदि सुनते रहते थे । सप्तमी के दिन आपका शरीर ठंडा पड़ने लगा। उस समय भी आपने कहा-मुझे जल्दो प्रतिक्रमण कराओ । प्रतिक्रमण के बाद नवकार मन्त्र की अखण्ड धुन चालू हो गयी। सबसे क्षमापना कर ली। रता साढ़े तीन बजे आपने कहा मुझे बैठाओ ! पर एक मिनट से अधिक न बैठ सके और नवकार मन्त्र का स्मरण करते हुए श्रावण शुक्ला अष्टमी पार्श्वनाथ मोक्षकल्याणक के दिन स्वर्गवासी हो गये। ___ आप एक विरल विभूति थे । आपके चारित्र को प्रशंसा स्वगच्छ और परगच्छ के सभी लोग मुक्त कण्ठ से करते थे। ज्ञानोपसना भी आपकी निरन्तर चलती रहती थी। एक मिनट का समय भी व्यथं खोना आपका बहुत ही अखरता था। साध्वोचित्त क्रियाकलाप करने के अतिरिक्त जो भी समय बचता था; आप ज्ञान सेवा में ही लगाते थे । इसीलिए आपने कई ज्ञानभडारों की सुव्यवस्था की, सूची बनाई । आप जो काम स्वय कर सकते थे, दूसरों से नहीं करवाते थे ! श्रावक समाज का थोड़ा सा भी पैसा बरबाद न हो और साध्वाचार में तनिक भी दूषण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनिजी न लगे इसका आप पूर्ण ध्यान रखते थे । अनेक ग्रन्थों का सम्पादन एवं संशोधन बड़े परिश्रमपूर्वक आपने किया था । खरतरगच्छ गुर्वावली के हिंदी अनुवाद का संशोधन कार्य जब आपको सौंपा गया तब ग्रन्थ के प्रत्येक शब्द और भाव को ठीक से समझ कर पंक्ति पंक्ति का आपने संशोधन किया । आपके सम्पादित एवं संशोधित ग्रंथों में प्रश्नोत्तरमञ्जरी, पिंडविशुद्धि, नवतत्व संवेदन, चातुर्मासिक व्याख्यान पद्धति, प्रतिक्रमण हेतुगर्भ, कल्पसूत्र संस्कृत टीका, आत्मप्रबोध, पुष्पमाला लघुवृत्ति आदि प्राकृत संस्कृत ग्रन्थों का तथा जिनकुशलसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि आदि ग्रन्थों के गुजराती अनुवाद के संशोधन में आपने काफी श्रम किया । सूत्रकृतांग सूत्र भाग १ - २ द्वादशपर्व कथा के अतिरिक्त जयसोमोपाध्याय के प्रश्नोत्तर चत्वारिंशत् शतक का सम्पादन एवं गुजराती अनुवाद बह ुत ही महत्वपूर्ण है । इस ग्रन्थ के सम्पादन के द्वारा तो आपने खरतरगच्छ की महान सेवा की है । । आपने और भी कई छोटे-मोटे ग्रन्थों का सम्पादन एवं संशोधन नाम और यश की कामना रहित हो कर किया । ऐसे महान मुनिवर्य का अभाव बहुत ही खटकता है। श्री जयानन्दमुनि जी आदि आपके शिष्य भी आशा है, अपने गुरुदेव का अनुकरण करने में गच्छ एवं शासन की सेवा करने का प्रयत्न करेंगे । स्वर्गीय गणिवर्य को श्रीमद् देवचन्द्र जी की रचनाओं के स्वाध्याय एवं प्रचार में विशेष रुचि थी। कई वर्ष पूर्व उन्होंने श्रीमद् देवचन्द्र जी की अप्रसिद्ध रचनाओं का संकलन करके एक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी । प्रस्तुत अष्ट-प्रवचन माता सज्झाय को हिन्दी अनुवाद सहित उनकी पवित्र स्मृति में प्रकाशित करवाया जा रहा है क्योंकि इसमें मुनिजीवन के जिस रहस्य को श्रीमद् देवचन्द्र जी अपूर्व शैली में प्रकाशित किया है, पूज्य बुद्धिमुनि जी का जीवन बहुत कुछ न्हीं आदर्शो से ओतप्रोत था । w Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनाय नम: आध्यात्म-रसिक पंडित प्रवर श्री देवचन्दजी कृत आठ प्रवचन माता का सज्माय ( भावार्थ सहित ) दोहासुकृत कल्पतरु श्रेणिनी, वर उत्तर कुरु भौम । अध्यातम रस शशि कला, श्री जिनवाणो नौमि...१ कठिन शब्दार्थ-सुकृत-शुभकार्य । कल्पतरु-मनवंछित फल देने वाला वृक्ष । श्रेणी-क्ति। वर-अच्छी । उत्तर कुरु भोम-उत्तर कुरु क्षेत्र। अध्यात्मआत्म स्वा। शशिकला-चन्द्रमा की कला । नौमि-नमस्कार करता हूं। भावार्थ-साधारण वृक्षों की उत्पत्ति भी अच्छी धरती के बिना नहीं हो सकती। अतः इच्छित फल-दाता कल्पवृक्षों के लिये उत्तरकुरु क्षेत्र की जमीन ही उत्तम मानी गई है। यहां पर ग्रंथकर्ता आदि मंगल में श्री जिनवाणी को उत्तरकुरुक्षेत्र के तुल्य बतला रहे हैं। जो कि कल्पवृक्ष से अधिक मनोवांछित फल देने की क्षमता-वाले सुकृत की जननी है । कल्पवृक्ष के विषय में यदि किसी को आस्था न भी हो, परन्तु सुकृत रूपी कल्पवृक्ष के मनोवांछित फल प्रदान करने में अनास्था का प्रश्न ही नहीं होता। एक ही उपमा से संतुष्ट न होकर इसे शशिकला से भी उपमित किया है। जैसे चन्द्रकिरणों से झरने वाला रस अमृत है, वैसे ही भगवद् बाणी से भरा हुआ अध्यात्म रस अवश्य अमृत है । इन गुणों वाली श्रीजिनवाणी को नमस्कार करने से अभेदोपचार से श्रीजिनेश्वरदेव को भी प्रणाम होजाता हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय दीपचंद पाठक प्रवर, पय वंदी अवदात । सार श्रमण गुण भावना, गाइश प्रवचन मात ॥२॥ शब्दार्थ-पाठक-उपाध्याय । प्रवर-अच्छे । पय-चरण ।वंदी-वंदना करके । अवदात -- उज्ज्वल । श्रमण–साधु । गाइश-गाऊंगा। . भावार्थ-जिन्होंने प्रभु तथा प्रभुवाणी की महिमा बतलाई है, उन गुरुदेवों की स्मृति व कृतज्ञता की सूचक है। अथवा व्यवहारोचित भी है । ग्रंथकर्ता स्व गुरू दीपचंद नामक पाठक (उपाध्याय) के पवित्र चरणोंमें नमस्कारकरके उत्तम मुनिजनों के गुणों की भावना रूप प्रवचन-माताओं का वर्णन-स्तवना करनाचाहते हैं । जननी पुत्र शुभंकरी-तेम ए पवयण माय । चारित्र गुण गण वर्द्धनी-निर्मल शिवसुख दाय ॥३॥ शब्दार्थ-शुभंकरी-भला करने वाली। तेम ए-वैसे ही यह । पक्यणमायप्रवचन माता । वद्धनी-बढ़ाने वाली। शिवसुख-दाय मोक्ष के सुख देने वाली । भावार्थ...जैसे माता पुत्र का हित करने वाली होती है। वैसे ही यह प्रवचन माता चारित्र रूपी पुत्र-रत्न की जननी, हितकारिणी, गुणसमूह को बढ़ाने वाली, और निर्मल मोक्ष की देने वाली है। भाव अयोगी करण रुचि-मुनिवर गुप्ति धरंत । जइ गुप्ते न रही सके, तो समिते विचरंत ॥४॥ शब्दार्थ-अयोगी-योग रहित । करण रुचि --करने की इच्छा। जइ-यदि । भावार्थ 'मन, वचन, काया के योगों से निवृत होने की रुचि वाले मुनि गुप्तियों को धारण करते हैं। अर्थात् तीनों योगों को अपने वश में रखते हैं। मन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय संकल्प को शून्य बनाना, वाणी से मौन रहना तथा काया से हलन चलनादि क्रियाओं मुनि यदि इस उत्सर्ग मार्ग पर न चल का त्यागना, गुप्तिस्वरूप उत्सर्ग मार्ग है। सके, तब अपवाद स्वरूप पांच समितियों में प्रवृति करे । गुप्ति एक संवरमयी, उत्सर्गिक परिणाम | संवर निर्जर समिति थी, अपवादे गुणधाम ||५|| शब्दार्थं - एक – एकांत रूप से । उत्सर्गिक निश्चय मार्ग । अपवादेंव्यवहार में । भावार्थ उपरोक्त कथन से कोई यह न समझ ले कि उत्सर्ग मार्ग तो उत्तम है और अपवाद मार्ग हीन है । इसलिये कवि दोनों की उत्तमता सिद्ध करते हुए कहते हैं, कि गुप्तियां केवल संवर-मयी हैं । ये नवीन कर्म बंध नहीं होने देतीं । क्योंकि कर्मबंध कषाय और योगोदय से होता है । अतः गुप्तिमार्ग उत्सर्गि ( निश्चयनय) परिणाम स्वरूपी हैं । अपवाद मार्ग भी गुणों का धाम है । यह भी स्वरूप से संवर और निर्जरामय है, तथा निश्चय का कारण है । सत् प्रवृत्तियों द्वारा निर्जरा होती है । असत् प्रवृत्तियों का निरोध समितियों का फलित होने से संवर हो ही गया । द्रव्ये द्रव्यतः चरणता, भावे भाव चरित । | 1 भाव दृष्टि द्रव्यतः क्रिया, करतां शिव संपत्ति –६ शब्दार्थ-द्रव्ये - - द्रव्य से । द्रव्यतः चरणता- -द्रव्य चारित्र । भावे भाव से । भाव दृष्टि - आत्म स्वरूप की ओर लक्ष्य | संपत्ति - मोक्ष रूपी लक्ष्मी । द्रव्यतः क्रिया - आचार | शिव भावार्थ... शुद्ध अन्तरात्मा में रमणता को भाव से ( निश्चय से ) भाव चारित्र कहते है । शुद्ध आत्मस्वरूप के उपयोग सहित गुप्ति - निवृत्ति रूप क्रिया; एवं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय आवश्यकतानुसार आहार निहार विहार में समिति रूप किया करते हुए अपने लक्ष्य स्थान- सुख धाम-मोक्ष को प्राप्त करते है । चाहे समिति हो चाहे गुप्ति, किसी भी क्रिया के करने से पहले श्रमण को उचित है कि वह अपने आत्मा को निरखे-पहचाने। यदि द्रव्य से अर्थात् भावविना कोई क्रिया कर भी ली, तो वह द्रव्य क्रिया कहलायेगी । कहा है कि "अणुव ओगोदव्वं" अर्थात् आत्म उपयोग शून्य क्रिया को द्रव्य कहा जाय । आत्म उपयोग सहित पाला हुआ चारित्र भाव चारित्र है । जैसे समिति और गुप्ति, उत्सर्ग और अपवाद साथ-साथ चलते हैं । वैसे ही भाव ( निश्चय ) को दृष्टि में रखते हुए व्यवहार चारित्र का पालन करने से शिव संपत्ति की प्राप्ति बतलाई है । द्रव्म और भाव तथा निश्चय और व्यवहार दोनों की आवश्यक्ता है । -६ आतम गुण-- प्राग्भाव थी, जे साधक परिणाम । समिति गुप्ति ते जिन कहे, साध्य सिद्धि शिव ठाम – ७ - प्रागभाव थी — प्रगट होने से । साधक - साधना करनेवाला आत्मा । साध्य - मोक्ष | शब्दार्थ-> भावार्थ साधना किसलिये की जाती है अर्थात् साध्य क्या है ? उसकी प्राप्ति में कौन-कौन से साधन काम में लिये जाते हैं और साधक किस कोटि का है । इन तीनों की शुद्धता ही मोक्ष का फल दे सकती है । मोक्ष साध्य है, समिति गुप्ति साधन है, और साधक़ मुमुक्षु आत्मा है । आत्म गुण प्रगट करने वाले ( होने से ) साधक के परिणामों को समिति - गुप्ति कहा जाता है। उससे साध्य - सिद्धि अर्थात् शिव स्थान मिलता है । शुद्धात्म बोध सहित साधक का व शुद्ध उपयोग स्वरूप परिणाम को निवृति - गुप्ति, तथा आवश्यकता पड़ने पर आत्म प्रतीतिसहजयणायुक्त प्रवृति को समिति (सर्वज्ञ) कहते है, इससे साध्य की सिद्धि होती है, वही मोक्ष है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय निश्चय करण रुचि थई, समिति गुप्ति धरी साध । परम अहिंसक भाव थी, आराधे निरुपाधि॥८॥ शब्दार्थ-निश्चय करण रुचि-निश्चय नय से सिद्धि करने की रुचि । निरुपाधि-उपाधि-रहित । ___भावार्थ--निश्चय से साध्य की सिद्धि करने के इच्छुक मुनि, समिति एवं गुप्तिको धारण करे और उत्कृष्ट अहिंसक भावोंसे निरुपाधि (उपाधि रहित) भाव को आराधे। क्योंकि पुद्गलों की आसक्ति और विभाव-दशा ही वास्तव में आत्मा की हिंसा है । समता की प्राप्ति और आत्मानन्द ही अहिंसा का परम शुद्ध स्वरूप है। परम महोदय साधवा, जेह थया उजमाल । श्रमण भिक्ष माहण यति, गाउं तस गुणमाल-६ शब्दार्थ--परम महोदय-मोक्ष । जेह-जो। उजमाल-उद्यमशील । बबउसकी । गुणमाल-गुणों की माला। भावार्थ--परम महोदय अर्थात् मोक्ष की साधना करने के लिये जो उद्यमशील हैं, ऐसे श्रमण, भिक्षु , माहण, यति, आदि की गुणमाला गाऊंगा । तपस्या करने में श्रम करने वाला श्रमण, शुद्ध भिक्षा लेने वाला भिक्षु , किसी भी प्राणी को मन हणों, मत हणो, का उपदेश देने वाले और स्वयं छकाय के जीवों की दया पालने वाले माहण, उठना, बैठना, बोलना, चलना, आदि क्रियायें संयम (यतना) पूर्वक करनेवाला इन्द्रियजयी यती कहलाता है। भावार्थमें सारेनाम याविशेषण एक है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल १ पहली 'ईर्या समिति की " प्रथम गोवालिया तणे भवे जी" ए देशी... प्रथम अहिंसक व्रत तणी जीरे, उत्तम भावना एह । संवर कारण उपदिशि जी रे, समता रस गुण गेह । मुनीश्वर ! इरियासमिति संभार । आश्रव कर तनु योगनी जी रे,दुष्ट चपलता वार । मुनीश्वर-१ शब्दार्थ...एह=यह । उपदिशी = कही । गुणगेह = गुणों का घर । संभार= संभालो। आश्रव कर पुण्य या पाप का बंध करने वाला। तनु योग =काया योग। चपलता= चंचलता। वार = हटा । ___ भावार्थ-(गुण अवगुण के स्वरूप का प्रतिपादन और गुण ग्रहणव करने का आदेश तथा अवगुण को छोड़ने का उपदेश एक कुशल कवि का परिचय देता है।) इर्या समिति, प्रथम-अहिंसा-महाव्रतकी उत्तम भावना है और संवरका कारण है। इसलिये समता-रस रूपी गुणों के आगर ! हे मुनीश्वर ! इर्यासमिति की साधना करो । काय योग की चपलता को दुष्ट आश्रवका कारण समझकर उसका निवारण करो-१ काय गुप्ति उत्सर्गनीजी रे, प्रथम समिति अपवाद । इरिया ते जे चालबुजी रे, धरी आगम विधिवाद-२ मु० शब्दार्थ...इरिया पहली समिति का नाम। चालवु =चलना। धरी= धारण करके । आगम विधिवाद =शास्त्रों की आज्ञा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इर्या समिति को ढाल भावार्थ...काया गुप्ति उत्सर्ग मार्ग है, और ईर्या समिति, काया गुप्तिका अपवाद मार्ग है । आगमोक्त विधि विधानों का पालन करते हुये चलने का नाम ईर्या समिति है। जैसे कि द्रव्य से ईर्या समिति क्षेत्र, से साढ़े तीन हाथ की लम्बाई तक भूमिगत दृष्टि रख कर चलना, काल से दिन दिन में और भाव से पांच इन्द्रियों के विषयों और पांच प्रकार की स्वाध्याय की वर्जना करके चलना विधि मार्ग है । ज्ञान ध्यान सज्झायमां जी रे, स्थिर बैठा मुनिराय । शाने चपलपण करे जी रे, अनुभव रस सुख राय-३ .मु० शब्दार्थ...ज्ञान-तत्त्वचिंतन । ध्यान = चित्त की एकाग्नता । सज्झाय = स्वा घ्याय, शाने= किस लिये । अनुभव रस आत्मिक आनंद । ___ भावार्थ--ज़बकि ज्ञानो(तत्त्व चिंतन), ध्यान (चित्त की एकाग्रता), स्वाध्याय, में स्थिर बैठे हुए मुनियों को अनुभवरस का वह सुख मिलता है, जो कि चक्रवत्तियों को भी सुलभ नहीं है । तब ऐसे मुनियों को खाना, पीना, उठना, बैठना, जाना, आना आदि क्रियायें करने की क्या आवश्कता है ? इन सब कार्यों में तो योगों की चपलता रही हुई है । - ३ मुनि उठे वसही थकी जीरे, पामी कारण चार । वजिनवंदन,(१)गामांतरे,(२),जीरे, के आहार(३),निहार(४)-४मु० शब्दार्थ...वसही स्थान । पामी =पा करके । गामांतरे एक ग्राम से दूसरे गाम । आहार =भोजन। निहार =मलत्याग-शौचादि । ___ भावार्थ "कारण-मंतरा मंदोपि न प्रवर्त्तते" अर्थात् प्रयोजन के बिना मूर्ख भी प्रवृत्त नहीं होता ! मुनि तो विशेष योग्यता वाले होते हैं, अतः उनके उपाश्रय से बाहर जाने के अत्यन्त उपयोगी चार कारण बतलाये हैं। १ जिनकन्दन, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय २ विहार, ३ आहार और ४ निहार । उनकी उपयोगिता व आवश्यकता क्रमशः आगे की गाथाओं में बतलाई जायेगी परम चरण संवर धरु जीरे, सर्व जाण जिन दीठ शुचि समता रुचि उपजे जीरे, तेणे मुनिने इट-५ मु० म० शब्दार्थ...परम= उत्कृष्ट । चरण = साधुपना ।संवरधरु= संवर को धारण करने वाले । सर्वजाण = सर्वज्ञ । दीठ = देखने से । शुचि पवित्र । समता रुचि समभाव की इच्छा । तेणे = इसलिये । इछु = इष्ट-प्रिय-करने लायक।। भावार्थ"जिन वंदन व मन्दिरों में जाकर वीतराग मूर्ति के दर्शन क्यों करना चाहिये ? उसका प्रयोजन एवं फल बतलाते हुए कहा गया है कि मुनि बनने: का उद्देश्य होता है, वीतराग पद पाना। इसलिये वीतराग पद पाये हुये श्री जिनेश्वर देव को वन्दन करने के लिये मुनि चैत्य (देहरासर) में जाते हैं । संवर धारक, परम चरण (यथाख्यात चारित्र) वाले, सर्वज्ञ श्री जिनेश्वर देव के दर्शन से मुनि को पवित्र समता की रुचि उत्पन्न होती है । शुचि समता का अर्थ है । - अकषाय दशा (समभाव) :जिससे अहंकार और ममकार वृत्ति का उच्छेद होता है। अथवा शुचि समता का अर्थ है-प्राणीमात्र को आत्मवत् समझना। तथा तीसरा अर्थ है-अपने को उच्च और अन्य किसी को हीन मानने की भावना का समाप्त होना। चौथा अर्थ है-अपनी आत्मा को संग्रह नय की दृष्टि से जिनेश्वर देवके समान सभझना। प्रभु दर्शन करते हुए दो क्षण के लिये तो मुनि अपनी वैभाविक दशा को भूलकर स्वभाव-परक हो जाता है । मन से सोचता है कि यह वैकारिक दशा संयोग और कर्मजन्य है । स्वरुपतः तो आत्मा अपने आप में स्फटिकरत्न के तुल्य सदा स्वच्छ ही है। अतः मुझे चाहिये कि अनंत वीर्योल्लास से इन कर्म बंधनों को तोडकर जिनेश्वर की तरह निराबाध सुखी बन जाऊ। इसलिये मुनि को जिनवंदन करने के लिये जाना इष्ट है-५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इर्या समिति की ढाल राग वधे स्थिर भाव थी जीरे, ज्ञान बिना प्रमाद | वीतरागता ईहता जीरे, विचरे मुनि साल्हाद - ६ मु० मु० शब्दार्थ... राग == मोह । स्थिर भाव थी = एक जगह रहने से । इहता - चाहते हुये । साल्हाद = खुशी से । भावार्थ... स्थिर आसन से उठने या निवास स्थान, उपाश्रयसे बाहर जाने का दूसरा कारण 'विहार' बतलाया है । मुनियों के लिये यह उचित हैं किवे एकग़ांवसे दूसरे गांव विहार करते रहें । यदि वे शास्त्रोक्त नवकल्पी विहार के नियम का उल्लंघन करके एक ही गांव में निवास बना लेते हैं तो क्षेत्र और श्रावकों के साथ राग भाव बढ़ता है तथा ज्ञानाभ्यास के बिना प्रमाद की वृद्धि होती है । अत: वीतरागता के अभिलाषी मुनि हर्ष सहित विहार करते रहते हैं । —६ एह शरीर भवमूल छैजीरे, तसु पोषक आहार । जाव अयोगी नवो हुये जीरे, ताव अनादि आहार - ७ मु० मु० शब्दार्थ...भवमूल–जन्म का कारण | पोषक = पोसने वाला । जाव== अयोगी - योग रहित जबतक । ताव तब तक । अनादि सदा 1 भावार्थ - तीसरा कारण आहार है । अर्थात् आहार लानेके लियेस्वाध्यायादि को छोड़कर उपाश्रय से बाहर जाना पड़ता है। क्योंकि जब तक शरीर हैं, तबतक आहार की आवश्यकता रहेगी। आहार तीन प्रकार का है ओज आहार, लोम आहार और कवल आहार अपर्याप्त अवस्था में गर्भ में उत्पन्न होते ही प्रथम समय जो चक्र और शोणित मिश्र आहार लिया जाता है, वह ओज आहार है । पर्याप्त होने के बाद रोमों द्वारा जो आहार प्रतिक्षण लिया जा रहा है, उसे लोम आहार कहते हैं । ये दोनों प्रकार के आहार देवता नारकी तथा समस्त स्थावर जीवों को होता है । तीसरा कवल आहार है, जो मुख द्वारा किया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय जाता है । ओज-लोभ-और कवल ये तीनों ही आहार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यञ्च को होते हैं । यह जीव अयोगी न बन जाय तब तक आहार लेता ही रहता है। अपवाद इतना सा है किमृत्यु के पश्चात् परभव में जाते समय आत्मा यदि वक्रगति से जाये तो अधिक से अधिक तीन समय तक अनाहारिक रह जाता है। अथवा केवली समुद्घात के आठ समयों में से चौथा, पांचवाँ, छठा ये तीन समय अणाहारिक अवस्था के होते हैं। (सिद्ध भगवान तो अशरीरी होने से सदा अनाहारी ही है)। इन अपवादों को छोड़कर किसी भी स्थिति में आहार के विना नहीं रहा जा सकता। यह शरीर ही संसार का मूल है। यह जानते हुए भीज़ब तक शरीर है उसे बचाये रखने के लिये आहार देना आवश्यक होता है क्योंकि संयम आराधना भी इसी शरीर के द्वारा ही होता है। साधक को अशरीरी बनने का ध्येय लेकर चलना हे। वह तभी हो सकता है जबकि आहार ग्रहण करने में अलोलुपता और शरीर पर अममत्व रहे। -७ कवल आहारे निहार छे जीरे, एह अंग व्यवहार । धन्य अतनु परमातमा जीरे, जिहां निश्चलता सार-८९० मु० शब्दार्थ...कवल-ग्रास । अंग =शरीर ।व्यवहार =रीत। अतनु = शरीर रहित । 'भावार्थ मुनि के उठने व चलने रूप प्रवृति का चौथा कारण निहार को बतलाया है क्योंकि कवल आहार करने वालों के लिये यह प्रकृति सिद्ध नियम है, कि निहार (मल-त्याग) करना ही पड़ेगा। इसलिये मुनि अशरीरी सिद्धभगवान) परमातमा की निश्वलता को धन्य समझता हुआ उसकोभावनाभाता है ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इर्या समिति की ढाल पर परिणति कृति चपलता जी रे, केम छूटशे एह । एम विचारी कारणे जी रे, करे गौचरी तेह ॥ ॥ मु०मु०. शब्दार्थ...पर परिणति कृति चपलता=कर्मों द्वारा की हुई चंचलता । केम = कैसे । छूटगे छूटेगी। एम =ऐसे। विचारी विचार करके। कारणे = क्षुधावेदनी य के उदय होने से। गौचरी-भिक्षा। ___ भावार्थ... मुनि विचार करे कि पुद्गलोंकी परिणति से होने वाली मेरी मानसिक चञ्चलता तथा कायिक चपलता कब छूटेगी ? इससे उसकी मोक्ष के प्रति उत्कट अभिलाषा सूचित होती है । मुनिके लिये आहारादि करते समय रागभाव तो त्याज्य है ही, परन्तु मुनि तो चाहता है कि आहार ही न करना पड़े, ऐसी अवस्था प्राप्त हो वैसे अवस्थाको प्रतीक्षा मेंकेवल क्षुधा निवृत्ति के लिये और संयम तथा मुक्ति के साधन भूत शरीर-निर्वाह के लिये गौचरी करे। देह रक्षा के लिये आहार लेना पड़ता है, यह विचार करके वह गोचरी के लिये जावे, राग भाव से नहीं। क्षमावन्त दयालआजी रे, निस्पृह तनु निराग। निर्विषयी गजगति परे जी रे, विचरे ते महाभाग॥१०॥मु०मु०. शब्दार्थ...निस्पृह =अभिलाषा रहित । निराग =मोह रहित । निर्विषयी = विषयों से रहित । गजगति =हाथो को चाल की तरह मस्त, धीरे धीरे महाभाग =महा भाग्य शाली। भावार्थ-ऐसे उत्कृष्ट भावना वाले मनियों का प्राथमिक धर्म क्षमा है। परीषहोंको समभाव से सहन करने का नाम तो क्षमा है ही, किन्तु अपराधियों के प्रति भी मानसिक क्रोध उत्पन्न न होने देना, उत्कृष्ट क्षमा है । हृदय में छःकाय के जीवों के प्रति दया भाव है, ऐसे क्षमावन्त और दयालु मुनि अपने शरीरपर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ भी निस्पृह और निराग रहते हुए विचरते हैं । वे विषय तथा विकारोंसे रहित होकर मस्त हस्ती की तरह विचरने वाले मुनि, महा भाग्यशाली हैं ॥ १० ॥ परमानन्द रस अनुभवी जी रे, निज गुण रमता धीर । 'देवचन्द्र' मुनि वदतां जीरे, लहिये भवजल तीर ॥११॥ मु० शब्दार्थ...परमानंद= उत्कृष्ट आनंद । अनुभवी = अनुभव करके । निजगुण = आत्मा के गुण । लहिये = पाइये । भवजल तीर = संसार का किनारा । भावार्थ- पौद्गलिक पदार्थोकी प्राप्ति और उनके सेवनसे जो सुख है, वह भी दुख परिणामी होने के नाते तुच्छ, क्षणिक ओर बाह्यानन्द है ! आत्मिक गुणों में - रमण करना ही परम आनन्द है । उस परमानन्द रस का अनुभव करते हुए - वीर पुरुष संसार सागर का किनारा पाते हैं। ऐसे सत्पुरुषों को श्री देवचन्द्रजी - बन्दना करते हैं ॥११॥ शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान में रसानन्द लेने वाले अनुभवी मुनि अपने आत्म -गुणों में ही रमते हुए स्थिर रहते हैं ऐसे मुनियों को बन्दन करने वाले श्रद्धालु - जन भी संसार सागर का किनारा पा जाते हैं । Jain Educationa International अष्ट प्रवचन माता सञ्झाय For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल-दूसरी "भाषा समिति" की _ "स्वामी सीमंधर वीनति सांभलो माहरी देव" ॥ एदेशी ॥ साधुजी समिति बीजी आदरो, ववन निर्दोष प्रकाश रे ।' गुप्ति उत्सर्ग नो समिति ते, मार्ग अपवाद सुविलास रेसा॥ सन्दार्थ...बीजी दूसरी । निर्दोष =दोष रहित । प्रकाश =बोलो । गुप्ति वचन गुप्ति । सुविलास =अच्छा। भावार्थ--साधुओ ! दूसरी भाषा समिति धारण करो। निर्दोष वचन बोलो । उत्सर्ग मार्ग में जो वचन गुप्ति कही है, उसीका अपवाद यह भाषा समिति है ॥१॥ भावना बीय महाव्रत तणी, जिनमणी सत्यता मूल रे । भाव अहिंसकता वधे, सर्व संवर अनुकूल रे ॥ साधु० ॥२॥ शब्दार्थ...बोय =दूसरे । तणी =की। भणी=कही। बर्ष =बढे । भावार्थ-यह भाषा समिति दूसरे महाव्रत की भावना है । जिनेश्वरोंने उसे सच्चाई का मूल बतलाया है । इससे सर्व संवरको प्राप्त करवाने वाली अहिंसकता बढ़ती है, ऐसा श्री जिनेश्वर देव ने कहा है ! अर्थात् मुनि सत्य वचन ही बोले और वह भी अहिंसा एवं संवरको बढ़ाने वाला ही हो ॥२॥ मौनधारी मुनि नवी वदे, वचन जे आश्व गेह रे। आचरण ज्ञान ने ध्यान नो, साधक उपदिशे तेह रे ॥३॥सा. शब्दार्थ...नवी नहीं । वदे =बोले। आश्रवगेह =कर्मों का घर । उपदिशे= बतलाये । तेह =वह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय भावार्थ:-मुनि आश्रव का गेह अर्थात् पापकारिणी; छेदकारिणी, भेदकारिणी, पीडाकारिणी, मर्म प्रकाशकारिणी, वाणी कभी न बोले। इसके उपरान्त ऐसी सच्ची बात भी न कहे, जिससे किसी को आघात पहुचे। श्री दशवकालिक सूत्र के सातवें अध्ययन में कहा है कि "सच्चा वि सा न वत्तव्वा,ज़ओ पावस्स आगमो" तथा "तहेव काणं काणित्ति तेणं चोरित्ति नो वए" अर्थात् जिससे पाप का आगमन हो, वह सच भी न बोले । जैसे-चोर को ओ चोर; काणो को ओ बे काणे ! कह कर न बोले । वह जो भी कुछ बोले, वह ज्ञान ध्यानके आचरणकरनेका उपदेश देता हुआ बोले और उसमें भी मधुरता, निपुणता, अल्पता,निरवद्यता,निरहकारिता और अतुच्छता रही हुई हों। वह भी योग्यायोग्यकी परीक्षा करके उचित समय पर व धर्मोपदेश देना अच्छा है ॥३॥ . उदित पर्याप्ति जे वचन नी, ते करी श्रृत अनुसार रे । बोध प्राग्भाव सज्झाय थी, वलि करे जगत उपकार रे॥४॥ शब्दार्थ...उदित == उदय में आई हुई । पर्याप्ति= पौद्गलिक रचना । श्रुत=ज्ञान । प्राग भाव-प्रगटपना वली=और । ___भावार्थ-नाम कर्म जन्य भाषा पर्याप्ति द्वारा जो कर्म इकट्ठे किये हुए हैं। उनके उदय से जो भाषा के पुद्गल ग्रहण होते हैं,उन्हें श्रुत के अनुसार बना करके मुनि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त ज्ञान द्वारा जगत का उपकार करे। स्वाध्याय द्वारा ज्ञान वृद्धि करने के लिये और अन्य जीवोंके कल्याणार्थ के लिये उपदेश-व्याख्यान के लिये ही मनि बोले ॥४॥ योग जे आश्रव पद हतो, ते कर्यो निर्जरा रूप रे । लोह थी कांचनमुनिकरे,साधतासाध्य चिदरूपरे॥५॥मा०सा० शब्दार्थ...आश्रव पद = पुण्य पाप के बंध का स्थान । हतो था। साधता= साधतेहुये। साध्य =मोक्ष । चिद्रूप =ज्ञान स्वरूप । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा समिती की ढाल भावार्थ-योग पांचवां आश्रव है। मनो वर्गणा-वचन वर्गणा और काय वर्गणा के पुद्गलों का जीव के साथ संयोग होने का नाम योग है। योग का सीधा अर्थ है, आत्म प्रदेशों की चञ्चलता । जिन योगों के साथ मोहजनित प्रवृत्ति हो वे सावद्य और मोहरहित प्रवृत्ति हो, वे निर्वद्य कहलाते हैं । मुनियों ने कर्म बन्ध के कारण रूप योगाश्रव को निर्जरा का निमित्त कारण बना दिया है। जैसे पारस मणि के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है। वैसे ही चिद्रुप साध्य की साधना करते हुए मुनियों ने योगों को कर्म क्षय का निमित्त बनाया है ॥५॥ चलना फिरना एवं बोलना आश्रव रूप योगप्रवृत्ति है पर मुनिने इस योग प्रवृत्ति को निर्जरा का कारण बना दिया। जिस योग प्रवृत्तिसे कर्मबन्ध हो, वह मुनि नहीं करता । सम्यक्त्वी की क्रियायें निर्जरा रूप है। . साधु निज वीर्य थी पर तणो, नवी करे ग्रहण ने त्याग रे । ते भगी वचन गुप्त रहे, एह उत्सर्ग मुनि मार्ग रे -~६सा 'सा० शब्दार्थ...निज वीर्य थी =आत्म शक्ति से । परतणो=पुद्गलोंका । तेभणी-इसलिये भावार्थ...सारे द्रव्य स्वतंत्र हैं। चेतन में अचेतनता को और अचेतन में चेतनता की क्रिया न तो हुई, न होती हैं । इस निश्चय से साधु अपने आत्मिक वीर्य द्वारा आत्मिक-गुणों का ही ग्रहण करता है। परन्तु परभाव अर्थात् भाषावर्गणा के पुलों का ग्रहण और त्याग नहीं करता है। भाषा का व्यवहार-वचन प्रवृति आत्मा का स्वभाव नहीं हैं वह तो पुदगल एवं कर्मजन्य है इसलिये मुनि वचन-गुप्ति से रहे, मौन रहे। यह उत्सर्ग मार्ग-मुनियों का मार्ग है। आत्म हित परहित कारणे, आदरे पंच सज्झाय रे । भण असन वसनादिका, आश्रये सर्व अवधायरे-७सा० सा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय शब्दार्थ...कारणे--वास्ते । आदरे करे अशन-आहार। वसना दिका-वस्त्रादिक। ___ भागार्थ "एक ओर निश्चय, दूसरी ओर व्यवहार,एक ओर उत्सर्ग दूसरी ओर अपवाद को साथ-साथ लेकर चलने नाम ही जैन दर्शन विधिमार्ग का है । वचनगुप्ति की जहाँ महिमा है, वहाँ भाषा समिति का स्थान कौन सा कम है ! साधक को उत्सर्ग के साथ अपवाद का अवलंबन अनिवार्यता से लेना पड़ा है, और लेना पड़ेगा। इसलिये मुनि भाषा समिति द्वारा अपने ज्ञान वृद्धि के लिए पांच प्रकार की स्वाध्यायकरे। इससे स्वहित और परहित दोनों है। क्योंकि धर्मोपदेश द्वारा अनेक जीवात्मा सन्मागी बने है, : बनते हैं,। स्वाध्याय का कार्य स्वास्थ्य पर निर्भर है,स्वास्थ्य का संबंध सात्विक आहार से है । इन पारंपरिक कारणों से आहार; वस्त्र, पात्र, पुस्तक, आदि उचित उपकरण (साधन) लेने का नाम गुप्तिरूप उत्सर्ग का समिति रूप अपवाद मार्ग है। -७ जिनगुग स्तवन निज तत्व ने, जोयवा करे अविरोध रे । देशना भव्य प्रतिबोधवा, वायगा करण निज बोधरे -८स० स०. शब्दार्थ...निजतत्त्व ने आत्मस्वरूप को। जोयवा =देखने के लिये । अविरोध =समान । देशना=व्याख्यान । भव्य =मोक्ष के योग्य जोव । प्रतिबोधवा =समझाने के लिये । वायणा =वांचन । निज बोध =अपने आप के लिये ज्ञान। ___ भागार्थ...जिनेश्वर देव की स्तवना करते समय मुनि अपनी आत्मा को जिनेश्वर देव की समानता में रख कर सोचे, कि ये जिनेश्वर देव वाले गुण मेरे में भी हैं या नहीं ? हैं तो प्रगट हैं या अप्रगट । अप्रगट हैं तो आवरण कौन से हैं। आवरण हैं ,तो वे दूर हो सकते हैं या नहीं। हो सकते हैं, तो कौन से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा समिति की ढाल मार्ग से। इन विकल्पों द्वारा अपने आपको पिछान कर मुनि ऐसा उद्यम करे. कि जिससे आत्मगुण प्रगट हो जायें। अत: निज बोध के लिये वाचन करे । और जो ज्ञान प्राप्त हो, उसका परहित में उपयोग करने के लिये धर्मकथा किया करे-८ नय गम भंग निक्षेप थो, स्वहित स्यावाद युत वाणि रे। सोल दस चार गुण सुमली, कहे अनुयोग सुपहाण रे-६ सा० शब्दार्थ...नय =वस्तु को जानने का तरीक़ा । गम=वस्तु के किसी एक धर्म का विवेचन । भंग =प्रकार । निक्षेप--रचना-स्थापना'। स्याद्वाद--कथंचित् सापेक्ष कथन । अनुयोग व्याख्यान । सुपहाण सुप्रधान-श्रेष्ठ। भावार्थ "याख्याता मुति को वागी नय,१ गम,२ भंग, ३शिक्षेप४, और स्याद्वाद ५ से भरी हुई, तथा सोलह, ६ दश७ चार, ८ गुणों वाली होने से व्याख्यान श्रेष्ठ होता हैटिप्पणी--। (१) नय सात हैं । नगम-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ और एवम्भूत । इन में प्रथम तीन नय व्यवहार और अंतिम चार निश्चय नय कहलाते हैं। तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक भी कहे जाते हैं। यदि वक्ता एक नय से बोलता हुआ अन्य नयों को मेक्षित रखता है, तब तो वे नय है, नहीं तो नया-भास हो जाता है। (२) गम-वस्तु के अनंत धर्मों में से किसी एक गुण या पर्याय का आंशिक विवेचन करने का नाम गम है।। (३) भंग-प्रतिपादन करने के प्रकार को भंग कहते हैं। जैसे त्रिभंगी-उत्पादव्यय और ध्रौव्य । चौभंगी-क्रोध-मान-माया और लोभ । सप्तभंगी-स्यात अस्ति For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ नास्ति आदि निन्मोक्त ७ भंग । ( ४ ) निक्षेपः -तत्त्व की स्थापना करने के प्रकार का नाम निक्षेप है। ये चार हैं १ नाम निक्षेप २ स्थापना निक्षेप३ द्रव्य निक्षेप और ४ भाव निक्षेप (५) स्याद्वाद - अपेक्षा पूर्वक कथन का नाम स्याद्वाद है । १ स्यादस्ति, ३ स्यान्नास्ति, ३ स्यादस्ति स्थानास्ति, ४ स्याद्वक्तव्य ५ स्यादस्ति अवक्तव्य, ६ स्यान्नास्ति अवक्तव्य, ७ स्यादस्ति स्यान्नास्ति अवक्तव्य यह सप्तभंगी है। इनसे युक्त सापेक्ष वचन स्याद्वाद है। 1 (६) सो लहगुण- लिंगतीन - १ पुल्लिंग, २ स्त्रीलिङ्ग, ३ नपुसकलिङ्ग ! तीनकाल- ४ भूत, भविष्य, ६ वर्तमान । तीन वचन - ७ एक वचन, ८ द्विवचन, बहुवचन | दो प्रमाण... १० प्रत्यक्ष, ११ परोक्ष । १२ उपनीत ( स्तुतिमय ) १३ अपनीत ( निन्दात्मक) १४उपनीतापनीत (स्तुति निन्दायुक्त, यथा सुरूपा किन्तु कुशीला) १५ अपनीताऽपनीत ( निन्दा स्तुति युक्त, यथां कुरूपा किन्तु सुशीला ) १६ अध्यात्म वचन । (७) दस गुण - १ जनपद सत्य, २ सम्मत सत्य, ३ स्थापना - सत्य, ४ नाम सत्य, ५ रूप सत्य, ६ पडुच्च सत्य, ७ व्यवहार सत्य. ८ भाव सत्य, योग सत्य, १० उपमा सत्य । अष्ट प्रवचन माता सज्झाय (८) चार गुण---१ द्रव्यानुयोग, २ चरण करणानुयोग, ३ गणितानुयोग, ४ धर्मकथानुयोग । या आक्षेपनी आदि ४ प्रकार के गुण सूत्र ने अर्थ अनुयोग ए, बीय निजुत्ति संजुत्त रे । तीय भाष्ये नये भाविओ, मुनि वदे वचन इम तंतरे ॥ १० ॥ सा० शब्दार्थ... सूत्र -- मूल आगम । निज्जुत्ति नियुक्ति । संजुत्त - सहित । तीय- तीसरा । भाष्य-बिस्तृत विवेचन । तंज- सार । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा समिति की ढाल १६ भावार्थ... पहले सूत्र और अर्थ के अनुयोग से, दूसरे नियुक्ति से मिश्रित अनुयोग से तथा तीसरे भाष्य, टीका, चूर्णि आदि के अनुयोग ( व्याख्यान ) से मुनि तत्वों का प्रतिपादन करे ॥ १० ॥ ज्ञान समुद्र समता भय, संवरी दया तत्वानन्द आस्वादता, वंदिये चरण गुणधार रे॥११॥ सा० शब्दार्थ... आस्वादता -- चखते हुये । वंदिये - - नमस्कार करिये । चरण – चारित्र भावार्थ - ऐसे तत्वानन्द का आस्वादन करने वाले, ज्ञान के सागर, समताधारी, संवर और दया के भण्डार, चारित्र के गुणवाले मुनियों को वन्दना करिये ॥ मोह उदये अमोही जेहवा, शुद्ध निज साध्य लयलीन रे । 'देवचन्द्र' तेह मुनि वन्दिये, ज्ञानामृत रस पीन रे ॥ १२॥ सा० शब्दार्थ... अमोही जिस्मा वीतराग के समान । लयलीन मन । ज्ञानामृत रस पीन... ज्ञान रूपी अमृत रस से पुष्ट । ते--वे । भावार्थ - यद्यपि सूक्ष्म मोह का क्षय तो बारहवें गुणस्थान में होता है । परन्तु अमोही के तुल्य अर्थात् वीतरागता के सम्मुख दृष्टिवाले, ज्ञानामृत रूपी से पुष्ट, अपने शुद्ध साध्य में लीन, मुनियों को वन्दना करने को श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज कहते हैं तथा स्वयं देवचन्द्र जी उन्हें वन्दना करते हैं ॥१२॥ इति भाषा समिति स्वाध्याय । रस Jain Educationa International भण्डार रे । · --- For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल-३ तीसरी-एषणा समिति की "मेतारज मुनिवर ! :धन धन तुम अवतार ॥ एदेशी ॥ समिति तीसरी एषणा जी, पञ्च महाव्रत मूल । अणाहारी उत्सर्ग नो जी, ए अपवाद अमूल । मनमोहन मुनिवर ! समिति सदा चित्तधार ॥१॥ अ० शब्दार्थ...एषणा--देख भाल। अणाहारी-आहार न करने की अवस्था । अमूल--अमूल्य । पंच महाव्रत--अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । - भावार्थ--पहली ईर्या समिति में आहार लाने के लिये उपाश्रय से बाहर जाने ग उसके कारणों का वर्णन किया था। परन्तु आहार की गवेषणा-ग्रहणेषणा तथा पासेसणा का सविस्तार वर्णन इस एषणा समिति में ही आयगा। यह एषणा समिति पांचों ही महाव्रतों की मूल है । क्योंकि एषणा न हो तो आहार न हो, आहार न हो तो शरीर न हो, शरीर न हो तो महाव्रतों की साधना भी न हो, इसलिये एषणा समिति को महाव्रत का मूल कहा गया है । मूल उत्सर्गमार्ग से तो अनाहारीपन ही इष्ट है ।उस उत्सर्गमार्ग का आहार ग्रहण रूप अपनाद मार्ग एषणा समिति है । हे मन मोहनमुनिवर ? इस समिति को सदा के लिये अपने मन में धारण करो । चेतनता चेतन तणी जी, नवा परसंगी तेह । तेणे तिणपर सनमुख नवी करेजी, आतम रति व्रती जेह-२ म० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणा समिति क ढाल शब्दार्थ-चेतन तणी जीवात्मा की। नवी-नहीं, परसंगी-पुद्गलों के संग वाली । पर सनमुख-पुद्गलों के सामने । आतम रतिव्रती आत्म स्वरूप में खुश रहने वाले। भावार्थ...चेतन को चेतनता, चेतन के सिवाय दूसरों के साथ रहने वाली नहीं है । इसलिये आत्म रमण में रूचि वाले मुनि, अपनी वृत्तियों को पर (पुद्गल) सम्मुख नहीं करते । २ काय जोग पुद्गल ग्रहेजी, एह न आतम धर्म । जाणग कर्ता भोगता जी, हूँ माहरो ए मर्म-३ म० शब्दार्थ-जाणग-जानने वाला । कर्ता--करनेवाला। भोगता--भोगनेवाला। मांहरो--मेरा । मर्म-सार। भावार्थ ...आहार के पुद्गलों को ग्रहण करने का कार्य काय-योग़ का है। यह निश्चित है कि यह कार्य आत्मधर्म नहीं है। मैं ( आत्मा ) तो निश्चिय नय से मेरे आत्म स्वरूप का ज्ञाता, अपने ही में रहे हुये ज्ञानादि गुणों का कर्ता, तथा निजी आत्मिक सुख का भोक्ता हूं। यह एक मर्म ( रहस्य ) की बात है। -३ - नभिसंधिय वीर्य नो जी,रोधक शक्ति अभाव । पण अभिसंधिज वीर्य थी जी, केम ग्रहे पर भाव ---४ म० शब्दार्थ--अनिभिसंधिय--इन्द्रिय जनित। रोधक शक्ति--रोकने की ताकत अभाव=नहोना । अभिसंधि--आत्म जनित। ग्रहे--ग्रहण करे। परभाव-- पुद्गल । भावार्थ...अनभिसंधिय ( इन्द्रिय जनित ) वीर्य को रोकने वाली शक्ति का अभाव है, आत्म शक्ति (अभिसंधि) द्वारा पर भावों का ग्रहण भी नहीं हो सकता। अतः मुनि पर भानों का ग्रहण कैसे कर सकता है ! आत्मिकशक्ति और इन्द्रिय अवभिसंधित्व शक्ति अपना अलग-अलग काम करती है। ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रनचन माता सज्झाय एम परत्यागी संवरी जी, न ग्रहे पुद्गल खंध । . साधक कारण राखवाजी, अशनादिक संबंध-५ मन० शब्दार्थ-पुद्गल खंध--कर्म पुद्गल का समूह । कारण--साधना का कारण शरीर भावार्थ --ऐसे पुद्गल त्यागी और संवर अवस्था वाले मुनि पुद्गलों के स्कंध (समूह) रूप आहार को ग्रहण नहीं करे। किन्तु मुनि की आत्मा अशरीरी तो है नहीं, अशरीरी बनने की कोशिश में जरूर है। निश्चय नय से आत्म-सिद्धि रूप कार्य का कारण आत्मा ही है परन्तु कथंचित् भवनाही शरीर भी नैमित्तिक कारण है । अत: जब तक कार्य सिद्ध न हो जाय, तबतक उसके साधक रूप शरीर को स्वस्थ और उपयोगी रखने के लिये आहार करना आवश्यक है। ५ आतम तत्व अनंतताजी, ज्ञान बिना न जणाय । तेह प्रगट करवा भणीजी, श्रुत सज्झाय उपाय।६ मन० तेह देहथी देह एह जी, आहारे बलवान । साध्य अधूरे हेतुने जी, केम तजे गुणवान-७मन० शब्दार्थ--आतम तत्त्व-आत्मा के गुणों को। अनंतता--अनंतपना । करवाभणीकरने के लिये । श्रुत-ज्ञान । सज्झाय स्वाध्याय । तेह-वह, स्वाध्याय। साध्य अधूरे...लक्ष्य अपूर्ण हो तब तक । भावार्थ...साधक के लिए आवश्यक है-आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पिछानना और उसे प्रगट करना । क्योंकि आत्म तत्त्वके अनंत गुणों रूप अनंतताको पहचानने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञानस्वाध्याय से प्राप्त होता है एवं स्वाध्याय के लिए स्वस्थशरीर की आवश्यक्ता है। स्वस्थता आहारसे रहतीहै अतःसाध्य अधूरा रहते हुये साधन (आहार) को गुणवान व्यक्ति कैसे छोड़ सकता है ? इसलिये गुणवान मुनि एषणा पूर्वक प्राप्त किया हुआ आहार अलोलुपता से ग्रहण करे-६-७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणा समिति की ढाल २३ तनु अनुयायो वीर्य नो जो, वर्तन अशन संयोग । वृद्ध यष्टि सम जाणी ने जी, अशनादिक उपभोग...८ मन० शव्दार्थ-तनु अनुयायो-शरोर के साथ रहनेवाला । वर्तन-व्यवहार। अशन= संयोग -आहार के संयोग से । यष्ठि-लठी। उपभोग-काम में लाना । भावार्थ शरीराश्रित जो आत्मवीर्य है, वह आहार के संयोग से प्रवृत्त होता है अतः साधक आहारादि को, जैसे बूढ़े को लकड़ी के सहारा की जरूरत होती हैं वैसे ही शरीर को आहार की है, ऐसा समझकर ग्रहण करे । -८ जिहां साधकता नवी अडे जी, तिहां नवी ग्रहे आहार । बाधक परिणति वारवा जी, अशनादिक उपचार...६ मन० शब्दा-बाधक परिणति बाधा उत्पन्न करने वाली स्थिति । वारवा-निवारण करने के लिये। उपचार--उपयोग करे । ___भावार्थ =जहां तक आहार के विना यात्म साधना अक्षुण्ण चलती रहे, या रह सके यहां तक तो मुनि आहार ग्रहण न करे। परंतु साधना में बाधक होने वाली ( कारणों की ) परिणति को रोकने के लिये अर्थात् बाधा करने लगे तब आहारादिक का उपयोग करे । - सडतालोसै द्रव्य ना जी, दोष तजी निराग । असंभ्रांत मूर्छा विना जी, भ्रमर परे बड़ भाग-१० मन० शब्दार्थ-असंभ्रान्त-उपयोग सहित । बडू भाग-बड़े भाग्य वाला । ___ भावार्थ--साधु की ओर से उत्पन्न होने वाले सोलह दोष, ( १६ ) दाताकी ओर से उत्पन्न होने वाले सोलह दोष, ( १६ ) दोनों की ओर से सम्मिलित रूप से उत्पन्त होने वाले दश (१०) दोष, यों बयाँलीस दोष एषणा के हैं और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय पांच (५) दोष ग्रासेषणा के हैं । इन सैंतीलीस दोषों को टाल करके आहार ग्रहण करे। कर्म बंध के मूल कारण राग, मूर्छा, संभ्रम, लोलुपता आदि भाव दोषोंको भी टालता रहे। प्रायः भाव दोषों के बिना द्रव्य दोष नहीं हुआ करते, कदाचित् हो भी जाये तो भाव दोष के बिना कर्म बंध नहीं होता। इसमें देने वाला, लेने वाला, और दी जाने वाली वस्तु शुद्ध होनी चाहिये । जो भाग्यशाली मुनि इन दोषों से रहित आहार लेते हैं, वे भंवर के समान फलों से रस लेकर भी दाता को कष्ट नहीं पहुंचाते। १० तत्त्वरूचि तत्त्वाश्रयी जी, तत्त्वरसिक निग्रंथ । कर्म उदये आहारतां जी, मुनि माने पली मंथ-११ मन० शब्दार्थ-कर्म उदय-क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से । आहारतां-आहार लेते हुए भी। पलीमंथ-उपाधि-बेठ । भावार्थ-तत्त्वों की रूचि वाले, तत्त्वों के आश्रयी तथा तत्त्वों के रसिक 'निग्नन्थ मुनि क्षुधा वेदनीय के उदय होने से आहार करते हुये भी उस आहार को पलिमंथ( वेठ ) के तुल्य समझते हैं। ११ । लाभ थकी पण अणलहे जी, अति निर्जरा करंत । पामे अणव्यापक पणे जी, निर्मम संत महंत-१२ मन० शब्दार्थ-लाभ थकी- मिलने से भी । अणलहे-न मिलने पर । पामें-मिलनेपर अणव्यापक पणे-लोलुपता रहित । निर्मम-ममता रहित भावार्थ = जिस देश में जिस समय भोजन बनता हो तब, वा हुधा वेदनय के उदय होने पर तथा अपने प्रत्यारव्यान के समाप्त होने पर मुनि आहार करते है, तथा अन्तराय कर्म के उदय से आहार न मिलने पर शान्त रह कर बहुत से कर्मों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणा समिति की ढाल २५ का निर्जरी करते है । आहार के लिये गौचरी जाना तो अपने बस की बात है। किंतु आहार का मिलना न मिलना भाग्याधीन है । अपने पक्ष में तो अंतराय कर्म के उदय से तथा लोक पक्ष में लोगों के अनजान होने से अथवा दान-भावना की अल्पता से ज़ब मुनि को आहार न मिले, तब सहजतया द्वषोत्पत्ति की संभावना रहती है। लोगों पर द्वष होने से मुनि सोचेगा, कि ये लोग कितने लोभी हैं ?, जो कि एक मुनि को भी भिक्षा नहीं दे सकते, तब इनके यहाँ अनाथ, दीन,-हीन, गरीबों को देने के लिये तो पड़ा ही क्या है ? । अपने पर द्वेष होगा, तब यों विकल्प आयेंगे कि सारे साधुओं को तथा भिखारियों को तो भोजन मिलता है किंतु मैं ही एक कैसा अभागा हूं, जो कि भूखा बैंठा हूँ। इस परिस्थिति में अपने प्रति और लोगों के प्रति दीन-हीन भावना न आने का मार्ग इस गाथा में दिखलाया है। मुनि विचारे कि आहार मिलने की बजाय न मिलने से अधिक निर्जरा होती है। अतः अच्छा हुआ ! यदि आहार नहीं मिला तो सहज ही में तप की वृद्धि हो गई, स्वाध्याय को समय अधिक मिलेगा, स्थंडिल भूमि जाने की आवश्यकता न पड़ेगी। पात्र धोने न पडेंगें। शरीर हल्का रहने से ध्यान की स्थिरता अधिकतर बन सकेगी। क्या है, आज नहीं मिला तो कल मिल जायेगा। ऐसे विराग पूर्वक चिंतन से बहुत निर्जरा होती हैं। ग्लानि, द्वेष, आर्त ध्यान आदि पास ही नहीं आ सकते । यदि मुनि को आहार प्राप्त हो गया तो उसे अलोलुपता से ग्रहण करे । १२ अणाहारता साधता जी, समता अमृत कंद ।। श्रमण भिक्ष वाचंयमी जी, ते वंदे 'देवचन्द्र'-१३ मन० ब्दार्थ-अणाहारता-अनाहारी पना। साधता-साधते हुये। भावार्थ = अणाहारिकता की साधना करने वाले, समता रूपी अमृत के कंद, श्रमण, मुनि, भिक्ष आदि को श्री देवचद्र जी वंदना करते हैं। -१३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल-४ चौथी-आदान भंड निक्षेपणा समिति की "धन जिन शासन मंडन मुनिवरा" ए देशी समिति चौथी रे चिहुं+ गति वारणी, भाखी श्री जिनराज। राखी परम अहिंसक मुनिवरे, चाखी ज्ञान समाज - १ शब्दार्थ-चिहुंगति वारणी=चार गति को रोकने वाली । चाखी-आस्वादन किया सहज संवेगी रे समिति परिणमो, साधवा आतम काज । आराधन ए संवर भाव नो, भव जल तरण जहाज-२ स० शब्दार्थ -सहज संवेगो =स्वाभाविक वैराग्य वाले । परिणमो-धारन करो । भावार्थ-हे सहज संवेगी अर्थात् स्वाभाविक वैराय वाले मोक्षाभिलाषी मुनि ! आत्म कार्य की साधना के लिये समिति-मार्ग में प्रवृत्त हो जाओ। जिनेश्वर ने कहा है कि यह चोथी समिति संवर भाव की आराधना का कारण, भव समुद्र से तरने के लिये जहाज तथा चार गति को रोकने वाली है। अतः परम अहिंसक मुनि समाज ने इसे धारण किया है। १-२ अभिलाषी निज आत्म तत्व ना, साखी घरेx रे सिद्धान्त । नाखो सर्व परिग्रह संग ने, ध्यानाकांखी रे सन्त -३स० शब्दार्थ-संग ने =बन्धन को। ध्याना कंखोध्यान के अभिलाषी । +, चऊ x, साधन x, करि For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदान भंड निक्षेपणा समिति की २७ भावार्थ=आगम वाक्यों को प्रमाण रूप मानते हुए निजी आत्म तत्त्व के अभिलाषी मुनि परिग्रह के सर्व बंधनों को तोड़कर केवल शुद्ध धान की आकांक्षा रखते हैं ।-३ संवर पंच तणो ए भावना, निरुपाधिक अप्रमाद । सर्व परीग्रह त्याग असंगता, तेहनो ए अपवाद–४ स० शब्दार्थ-निरुपाधिक = उपाधि रहित । असंगता - राग के बन्धन से रहित । भावार्थ-अपरिग्रह आदि पंच संवर द्वारों को यह भावना है कि निरुपाधिक ( उपाधि-उपधि-रहित ) और अप्रमादी बनना । किसी भी वस्तु का किंचित् मात्र अंश भी ग्रहण न करना, उत्कृष्ट असंगता है। इस उत्सर्ग मार्ग के अपवाद स्वरूप यह चौथी समिति है। इससे मुनि को चौदह उपकरणों के रखने की अनुमति दी गई है।-१४ उपकरण हैं (१) पात्र गृहस्थों के घर से भिक्षा लाने के लिये काष्ठ या मिट्टीका पात्र ।। (२) पात्र बन्धन पात्र को बांधने का वस्त्र । (३) पात्र स्थापन =पात्र रखने का कपड़ा। (४) पात्र-केसरिका=पात्र पोंछने का कपड़ा। (५) पटल= पात्र ढंकने का कपड़ा । (६) रजस्त्राण= पात्र लपेटने का कपड़ा। (७) गोच्छग=पात्र वगेरह साफ करने का कपड़ा । ऊपर लिखे सात उपकरणों को पात्र निर्योग कहा जाता है। इनका पात्र के साथ संबन्ध है। (८-६-१० ) पछेवड़ी ओढने की चद्दरें तीन । (११) रजोहरण =ऊन आदि का बना हुआ ओघा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय - (१२) मुखवस्त्रिका=बोलते समय मुख पर रखा जाने वाला कपड़ा । (१३) मात्रक = ( पड्धा ) लघु शङ्का आदि परठने के काम में आनेवाला पात्र थान पर पहनने का कपड़ा। ( पञ्च वस्तुक गाथा--७७१-७७६ ) " आगमोक्त उपकरण" १ भंड, ४ पात्र ३, ५ झोली, ६ पाय केसरिया ( पात्र प्रमार्जनिका ) ७* पाय ठवणं ( मंडलीयो ) १० पडला, संख्या ३) ११ गोच्छग, १२ रस्तान, १३-१४-१५, पछेवडी ३, १६ रजोहरण, १७ चोलपटो, १८ मुखवस्त्रिका, १६ पाय पुंछण । ( प्रश्नव्याकरण संवर द्वार ५ पांचवां ) प्रथम में भी नाम है दे० पृ० २०८ १ डंडा, २ लाठी, ३ वांस की खपाट, ४ ( निशीथ-उद्देश १ ) आर्याओं के लिये १ जाँघिया, २ कंचुको, (वृहत्कल्प -उद्देश ३ ) स्थविर के लिये १ छत्र, २ दंड, ३ भंड, ४ मत्र, ५ लाठी, ६ पाटली, ७ चेल. ८ चिलमिली, ६ चर्म, १० चर्म कोथली, ११ चर्मखंड,( ववहार-उद्देश-८ ) १ पात्र, २ पात्र बंधन-झोली, ३ पात्र केसरिका-कम्बल का टुकड़ा, १४पात्र स्थापन-पात्र रखने का कपड़ा, ५-६-७ तीन पटल-पात्र ढंकने के वस्त्रः ८ रजस्त्राण-पात्र में लपेटने का वस्त्र जिसको आज रस्तन कहते हैं, ६ गोच्छक-पूजणी, १०-११-१२ प्रच्छादक-ओढ़ने के तीन वस्त्र जिसमें दो सूती और एक ऊनी, १३ रजोहरण, १४ चोलपट्टा-धोती के स्थान पर बांधने का वस्त्र; १५ मुखानन्तक-- मुखवस्त्रिका,, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदान भंड निक्षेपणा समिति की . श्याने ? मुनिवर उपधि+ संग्रहे, जे परभाव विरत्त । देह अमोही रे नवी लोही कदा, रत्नत्रयी संपत्त-५ स० शब्दार्थ-उपषि = उपकरण। विरत्त=विरक्त । लोही लोभी। रत्नत्रयी= ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपी तीन रत्न । श्याने किसलिए, क्यों ___ भावार्थ-एक तर्फ तो अपरिग्रह और असंगता का उपदेश तथा दूसरी ओर चौदह उपकरण रखने की अनुमति देखकर शिष्य प्रश्न करता है, कि गुरूदेव ! अपने शरीर पर भी मोह न करने वाले, लोभ से रहित, पौगलिक भावों से विरक्त, ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपी रत्नत्रयी से संयुक्त मुनि इन उपकरणों का संग्रह किसलिये करते हैं ? । ५ अगलो गाथाओं में इसका उत्तर देते हुए संयमोपकरण रखने का कारण बतलाते हैं भाव अहिंसकता कारण भणी, द्रव्य अहिंसक साध । रजोहरणमुख वस्त्रादिक धरे, धरवा योग समाध--६ स० शब्दार्थ-भाव अहिंसकता=आत्म गुणों की रक्षा। कारण भणी करने के लिये। रजोहरण=ऊन का बना हुआ जैन मुनि का एक उपकरण। मुख-. बस्त्रिका=बोलते समय मुंह के आगे रखने का कपड़ा। भावार्थ-इस गाथा में रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका रखने का प्रयोजन बतलाते है। इसका समाधान करते हुये गुरु बोले, साधु के लिये भाव अहिंसकता ( भावों में किसी के प्रति राग द्वेष न होना ) साध्य है। उसका कारण है द्रव्य अहिंसकता ( द्रव्य से किसी भी जीव की हिंसा न करना )। द्रव्य अहिंसकता का पालन करने के लिये रजोहरण, मुखवस्त्रिका, वस्त्र, पात्र, दंड आदि रखे जाते हैं। एक दृष्टि से तो ये साधु के चिन्ह हैं। दूसरी दृष्टि से + उपगरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अष्ट प्रवचन माता सज्झाय इनकी उपयोगिता भी है। यथा भूमि पर अथवा शरीरादि पर कोई सूक्ष्म जीव हो, उसे रजोहरण द्वारा पूजकर अहिंसा का पालन किया जाता है। खुले मुंह बोलने से बातचीत के प्रसंग में व्यक्ति पर, तथा पठन-पाठन-व्याख्यान काल में शास्त्रों पर थूक के छींटे लगने का, अथवा वायु काय के जीवों की विराधना तथा संपातिम ( उडकर पड़ने वाले ) त्रस जीवों की हिंसा का दोष न हो पाये, इस लिये मुखवस्त्रिका की आवश्यकता है। काय योग व वचन योग का वर्णन करने से मनोयोग का ग्रहण स्वयमेव ही हो गया। अतः इन तीनों योगों की समाधि के लिये उपकरण रखना आवश्यक तथा निर्दोष है ।-६ शिव साधन नु मूल ते ज्ञान छ, तेहनो हेतु सज्झाय । ते आहारे ते वली पात्र थी, जयणाये ग्रहवाय-७ स० शब्दार्थ-जयणाये == यत्न पूर्वक । ग्रहवाय = लिया जाता है । भावार्थ-इस गाथामें पात्र (पातरा) रखने की आवश्यक्ता या प्रयोजन बतलाते हुये बताया गया है कि मोक्ष का मूल साधन ज्ञान, है ज्ञान का हेतु स्वाध्याय है, स्वाध्याय का बाह्य निमित्त शरीर का पोषक आहार है । वह आहार तभी अहिंसा पूर्वक हो सकता है, जब कि स्थविरकल्पी मुनि के पास पात्र हो । क्योंकि पात्र के 'बिना करपात्रों में द्रव पदार्थ ग्रहण करते समय यदि बिन्दु मात्र भी नीचे गिर जाय तो अजयणा की संभावना है । वह पात्र भी उत्कृष्ट साधना वालों के पास एक ही होने का बतलाया है ।-७ बाल तरुण नर नारी जंतुने, नम दुगंछा रे हेतु । तेणे चोलपट ग्रही मुनि उपदिशे-शुद्ध धर्म संकेत-८ स० शब्दार्थ-दुगंछा घृणा। हेतु कारण। चोलपट=धोती के स्थान पर 'पहनने का मुनि का वस्त्र । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदान भंड निक्षेपणा समितिकी भावार्थ-इस गाथा में चोलपट्ट ( कटि जंघा ढकने का वस्त्र ) रखने का ही प्रयोजन बताते हैं । -स्थविरकल्पी मुनि, बाल, तरुण, नर, नारी समाज की दुगंछा(घृणा) दूर करने के लिये चोलपट्ट (धोती के स्थान पहनने का वस्त्र धारण करे। क्योंकि जन समाज में रहना, भिक्षा के लिये घरों में प्रवेश पाना, धर्मोपदेश देनेके लिये सभा में बैठना, फिर नमावस्था में रहना बाल तरुण व नारी आदि के लिये घृणा का कारण है। इसलिए चोलपट्ट धारन करके मुनि शुद्ध धर्म का उपदेश दे। --- दंश मशक सीतादिक परीसहे, न रहे ध्यान समाधि । कल्पकादिक निरमोही पणे,धारे मुनि निराबाध-६ स० शब्दार्थ-परिसहे =कष्ट उत्पन्न होने से। समाधि = चित्त की स्थिरता । कल्पक =ओढने का वस्त्र। निराबाध =बाधा रहित । भावार्थ-अब चादर आदि वस्त्र को रखने का प्रयोजन बतालाते हुए कहते है कि डांस, मच्छर, आदि क्षुद्र जन्तुओं के उपद्रव से तथा अधिक शोत के कारण समाधि पूर्वक ध्यान नहीं हो सकता। इसलिये मुनि मूर्छा रहित और मर्यादा सहित वस्त्र धारण करे...६ लेप अलेप नदी ना ज्ञान नो, कारण दंड ग्रहंत । दशवैकालिक भगवई साख थी, तनु स्थिरता ने रे तंत-१० स० शब्दार्थ-लेप =नदी पार करते समय नदी के पानी को उडाई यदि जंघा तक हो तो लेप कहा जाता है। दंड =बडी लठो। तनुस्थिरता =शरीर को स्थिरता के लिये। भावार्थ--दूसरा कोई मार्ग न हो, तब मुनि नदी को पार कर सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय उसका जल मापने के लिये, अर्थात् जंघा प्रमाण जल को लेप, और उससे कम हो तो अलेप, इसका ज्ञान करने के लिये, तथा जल में या स्थल में सहारा लेने के लिये मुनि कानों तक के प्रमाण वाला एक दंड रख सकता है। श्री दशवका-. लिक सूत्र और भगवती जी में इसका उल्लेख है ( दंडगंसिवा० अ० ४) लघु त्रस जीव सचित्त रजादिकनो, वारण दुःख संघट्ट।। देखी पूंजी रे मुनिवर वावरे, ए पूरव मुनि वट्ट-११ स० शब्दार्थ--लघु = छोटे-छोटे। त्रस=चलने फिरने वाले जीव सचित्त =जीवसहित । संघट्ट =स्पर्श। पूजो =पूज प्रमार्जन करके । वावरे काम में ले। पूरव =पहले से। मुनिवट्ट = मुनियों का मार्ग। भावार्थ --अपने उपकरणों को काम में लेते समय मुनि यह देखे कि इनपर लघु त्रस जीव तथा सचित्त रजकण तो नहीं पड़े हुये हैं। यदि हों तो उन्हें देखकर या पूंज करके ( साफ करके दूर हटाके काम में लाये । मुनियों का यह मार्ग पूर्वानुपूर्व से प्रसिद्ध चलता आ रहा है। -११ पुद्गल खंध रे ग्रहण निखेवणा, द्रव्ये जयणा रे तास । भावे आतम परिणति नव नवी, ग्रहतां समिति प्रकाश-१२स०. शब्दार्थ-ग्रहण निखेवणा= लेना और रखना । नव नवीनई-नई। ग्रहतां= ग्रहण करने से। प्रकाश = निर्मल। ___ भावार्थ =पुद्गल खंध अर्थात् पुद्गल समूह से निष्पन्न उपकरण आदि लेने और रखने में की जाने वाली जयणा, द्रव्य जयणा है। भावों से जो आत्मा में नई-नई परिणति आती उसमें कोई बुरी परिणति न आ जाए, इसका विवेक रखना भाव जयणा है। इस जयणा या से उपयोग पूर्वक प्रवृति से समिति प्रकाश में आती है ।--१२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदान भंड निक्षेपणा ‘समितिकी बाधक भाव अद्वेष पणे तजे, साधक ले गत राग । पूर्व गुण रक्षक पोषक पणे, नीपजते शिव माग-१३ स० शब्दार्थ...अद्वष पणे द्वष रहित सद् बुद्धि से। गत राग=मोह बिना। पूर्वगुण=पहले प्राप्त किये हुये सम्यक्तव आदि गुण । नीपजते प्राप्त होते । ___ भावार्थ...जो उपकरण संयम मार्ग में बाधक बनते दीख, उन्हें अद्वष भावना से शीघ्र त्याग दे। अजीव पदार्थों पर भी यदि द्वष हो जाय तो अजीव प्राद्वेषिकी क्रिया लग जाती है। जो उपकरण साधक बनते हों, उन्हें राग रहित होकर ग्रहण करके काम में ले। आज तक की साधना में जो गुण प्राप्त हुये हैं, उनका रक्षण और पोषण करता हुआ मुनि जब तक मोक्ष प्राप्त न हो जाय तब तक उन उपकरणों का उपयोग करता रहे । उपकरणों के अतिरिक्त भी आत्मोन्नति में जो बाधक कारण हों उन्हें छोड़ा जाय, साधक कारणों को भी रागरहित भाव से अपनाया जाय ।...१३ । संयम श्रेणी रे संचरता मुनि, हरता कर्म कलंक । धरता समता रस एकत्त्वता, तत्त्व रमण निःशंक--१४ स० शब्दार्थ...रस एकत्वता एकत्व भावना रूपी रस। निःशंक-निर्भय । भावार्थ...संयम मार्ग में विचरता आगे बढता हुआ मुनि कर्मों के कलंक का नाश करे। तथा समता सहित रस को धारण करता हुआ एकत्त्व-भावना को भाता हुआ निःशंक हो कर आत्मतत्त्व में रमण करे।...१४ जग उपकारी रे तारक भव्य ना, लायक पूर्णानन्द । 'देवचन्द्र' एहवा मुनिराजना, वंदे पय अरविन्द । १५-स० शब्दार्थ...लायक योग्य। पय अरविंद-चरण कमल । भावार्थ...जगत के उपकारी, भव्य जीवों को तारने वाले, पूर्णानन्दी, और योग्य मुनिराजों के चरणारविन्द को देवचन्द्र जी वंदना करते हैं। १५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल - ५ पांचवीं " परिठावणिया समिति" की "कडलां घड़ दे रे " ए देशी" पांचवीं समिति कहो अति सुंदरू रे, परिठावणिया नाम । परम अहिंसक धर्म वधारणी रे, मृदु करुणा परिणाम -१ मुनिवर सेवजो रे, समिति सदा सुखदाय । स्थिर भाव संयम सोहिये रे, निर्मल संवर थाय...२मु० शब्दार्थ...धर्म वधारणी-धर्म बढाने वाली । मृदु = कोमल । स्थिर भावे = स्थिरता से । सोहिये - शोभा देते है । भावार्थ = पारिठावणिया नाम की पांचवीं समिति बड़ी सुन्दर है । जिसके पालन से आत्मा के परिणाम कोमल और करुणा वाले बनते हैं । यह परम अहिंसा धर्म को बढाने वाली है । अतः हे मुनिवर ! सदा सुख देने वाली इस समिति का सेवन करो । क्योंकि योग की स्थिरता से संयम को शोभा होती है, तथा निर्मल संवर की प्राप्ति होती है ।... १, २ देह नेह थी चंचलता वधे रे, विकसे दुष्ट कषाय । तिण तनुराग तजी ध्याने रमे रे, ज्ञान चरण सुपसाय - मु० - ३ शब्दार्थ... देहनेह थी = शरीर के मोह से । कषाय = क्रौध-मान- माया = लोभ १ पंचम २ थिरता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिठावणिया समिति को ढाल भावार्थ =शरीर पर राग होने से चंचलता बढती है तथा दुष्ट कषाय का विकास होता है। इसलिये मुनि शारीरिक मोह को छोड़कर ध्यान में रमण करे। ज्ञान और चारित्र के प्रसाद से ही ध्यान की प्राप्ति होती है। ध्यान का अर्थ है चित्त की एकाग्रता। दूसरी २ क्रियाओं द्वारा जितने कर्मों का क्षय नहीं होता, उतना सद्ध्यान द्वारा क्षण मात्र में किया जा सकता है ।...३ जिहां शरीर तिहां मल उपजे रे, तेह तणो परिहार । करे जंतु चर स्थिर अण दुहन्ये रे, सकल दुगंछा वार-४ म० शब्दार्थ...मल टट्टी। तेह तणों=उसका । परिहार=त्याग । अणदुहव्यो= विना दुखाये। दुगंछा घृणा। वार=छोड़ करके भावार्थ-जहां शरीर है, वहां आहार है। जहां आहार है, वहां निहार ( मल ) है। मल त्याग करने की भी मुनियों की अपनी एक विधि है। त्रस तथा स्थावर जीवों की विराधना ( हिंसा ) को तथा सारी दुगंछा (घृणा ) को टाल करके मल परठने का विधान है। जैन मुनि के लिये नाली वगेरे में पेशाब करने का निषेध है। अतः उसके लिये एक अलग पात्र रखा जाता है। जब लघु शंका ( पेशाब की हाजत ) हो तब, उसमें पेशाब करके खुले स्थान में यतना पूर्वक गिरा दे। ऐसा नहीं हो सकता कि आलसी गृहस्थों की तरह सारी रात का मूत्र पात्र में इकट्ठा होकर सडता रहे। मुनि जब मूत्र परठने को जाता है, तब जनसमाज देखता भी है अत: संभव है कि मुनि मन ही मन घृणा महसूस करे अथवा कोइ साधर्मी साधु की अस्वस्थ दशा में उसके मलमूत्र गिराने का प्रसंग आजाय, तब ग्लानि पैदा हो । अतः कहा है कि सारी घृणा को दूरकरके परठे तथा रोगी को सेवा का कार्य सहर्ष करे। तथा देवालय, क्रीडांगन, या गृहस्थ के घर के सामने मल मूत्र को न परछै, जिससे मुनि के प्रति लोगों में घृणा फैले।-४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय संयम बाधक आत्म 'विराधना रे, आणा घातक जाण। उपधि अशन शिष्यादिक परठव रे, आयति लाभ पिछाण-५१० शब्दार्थ-आत्म विराधना=ज्ञानादिक का नाश । आणा घातक आज्ञा की धात करने वाला। उपधि = उपकरण। आयति =भविष्यकाल । ____ भावार्थ--जो संयम में बाधक हों, आत्म विराधना करने वाले हों, श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा के घातक हों, उन उपधि; आहार, तथा शिष्यादिक को भी भविष्य का लाभ देखकर परठ दे। तात्पर्य यह है, कि संयम की साधना तथा जिनाज्ञा का सुंदर ढंग से पालन करने के लिये उपधि आदि का ग्रहण किया जाता है। वे ही चीजें यदि संयम में बाधक बनजाती हो तब उन्हें परठने में संकोच नहीं होना चाहिये। जैसे आधाकर्मी वगेरे दोषों वाला आहार आने से तथा भूल से कोई विषैला भोजन आजाने से यदि न परठा जाये तो दोष है। इसीलिये शिष्य भी यदि आचार और विचार में शिथिल है, पासत्था है, अपने लिए, बाधक बनरहा है तो उसे संघ से पृथक न करने में हानि है; और छोड़ देने में विशेष लाभ है।...५ वधे आहारे तपीया परठवे रे, निजकोठे अप्रमाद । देह अरागी भात अव्यापता रे, धीर नो ए अपवाद--६ मु० शब्दार्थ-वधे=जरूरत से अधिक होने पर । तपीया = तपस्वी। परठवे= अपनी विशेष विधि द्वारा गिराये। निज कोठे-अपने उदर रूपी कोठे में । भात अव्यापता=आहार पर अलोलुपता । धीर नो=धर्यवान का । भावार्थ =तपस्वी मुनि के जिस दिन उपवास का पच्चक्खाण हो, अस दिन यदि अन्य मुनियों के लाये हुए आहार को परठने का अवसर आ जाय, तब गुरु देव आज्ञा देते हैं, कि हे तपस्वी ! यह आहार तुम करलो। क्योंकि उपवास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिठावणिया समिति की ढाल ३7 के पच्चक्खाण में “पारिठावणियागारेण” आगार रखा जाता है तब तपस्वी मुनि उस अधिक आहार को परठने में जीव विराधनादि संभव होने से अपने उदर रूपी कोठे में परठते हैं । उस वक्त आहार में लोलुपता तथा शरीर पर राग भाव नहीं है । धैर्यवान मुनि के लिये यह एक अपवाद मार्ग है । I ..६ स' लोकादिक दूषण परिहरी रे, वरजी ने द्वेष । आगम रीते परठवणा करे रे, लाघव हेतु विशेष – ७ म० शब्दार्थ - - संलोकादिक लोग देखते हों, पास होकर आते जाते हों, आदिक दोष । लाघव हेतु = लघुता का कारण । भावार्थ--मल-मूत्रादिक परठते समय संलोकादिक १०२३ दोषों को वरजे । राग द्वेष को टालकर आगमोक्त विधि सहित परठे । अपनी लघुता धारन करे अर्थात् मैं ऐसा काम क्यों और कैसे करू, इस प्रकार अहंकार न आने दे, परठणा लाव का विशेष हेतु है ... ७ कल्पातीत अहालंदी क्षमी रे, जिन कल्पादि मुनीश । तेहने परठवणा एक मल तणी रे, तेह अल्पवलि दीस - ८ मु० शब्दार्थ –कल्पातीत = कल्प - नियम से रहित । तहने उनको | अल्पवती -थोड़ो । दीस दीखती है । " भावार्थ-कल्पातीत अर्थात् जिनेश्वरदेव, जिनकल्पी, यथालन्द कल्पी, परिहारविशुद्ध चारित्र वाले, पडिमाधारी, अभिसारी को सिर्फ मल परठने का काम पड़ता है । वह भी रूक्षाहार होने से बहुत ही अल्प और अलेप होता है -८ रात्रे प्रश्रवणादिक परठवे रे, विधिकृत मंडल ठाम । स्थविर कल्प नो विधि + अपवाद छैरे, ग्लानादिक ने काम श्मु +प्रति Jain Educationa International राग For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय शब्दार्थ - रात्रे = रातमें । परिश्रवणादि = मूत्र आदि । विधि से बनाये हुये। मंडलठाम = गोलाकार एक निश्चित स्थान । रोग आदि । (विधिकृत ε भावार्थ- स्थविरकल्पी मुनि को जब रात्रिकाल में मूत्रादिक परठना पड़ें तो दिन में विधि सहित बनाये हुये मांडलों (निश्चित स्थान ) में परठे । स्थविर कल्प का यह अपवाद मार्ग रोगी, बाल, वृद्ध मुनियों के लिये है । एह द्रव्य थी भावे परठवे रे, बाधक जे परिणाम । द्वेषनिवारी मादकता बिना रे, सर्व विभाव विराम - १०म० शब्दार्थ - - परिणाम = आत्मा के भाव । मादकता -मद- अहंकार । -- भावार्थ -- उपरोक्त परठना तो द्रव्य से है । भाव से परठना वह है कि आत्मा के गुणों को बाधा पहुंचाने वाले परिणामों का परित्याग करना । द्वेष का तथा सारे विभावों का निवारण करके अहंकार रहित बने अर्थात् सब विभावों से विराम ले ले | Jain Educationa International ग्लानादि == आतम परिणति तत्वमयी करे रे, परिहरता परभाव । द्रव्य समिति पर भावभणी घरे रे, म नि नोएह स्वभाव - ११म. ० शब्दार्थ - - आत्म परिणति = आत्मा के परिणाम | परिहरता = छोड़े । पर भाव भणी = पौद्गलिक भावों को । भावार्थ- पर भावों को छोड़ता हुआ मुनि अपनीआत्म परिणति को तत्त्वमयी कर डाले । किंतु द्रव्य समितियाँ परभाव होते हुये भी उनको धारन करे । भावों की विशुद्धता के लिए द्रव्य समितियाँ का पालन करें यह मुनि का स्वभाव है । x पिण For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिठावणिया समिति की ढाल पंच समिति समिता परिणाम थी रे, क्षमाकोष गतरोष । भावन पावन संयम साधता रे, करता गुण गण पोष--१२ म. ___शब्दार्थ-समिता=सहित। क्षमाकोष क्षमा के भंडार। गतरोषद्वेषरहित । पावन पवित्र । पोष=पुष्ट।। भावार्थ - मुनि पांचों समितियों से समित , ( सहित ) क्षमा के भंडार,रोष रहित, पवित्र भावना से संयम को साधता हुआ हुआ आत्म गुणों का पोषण करे। साध्य रसी निज तत्वे तन्मयी रे, उत्सर्गी* निर्माय । योग क्रिया फल भाव अवंचता रे,शुचि अनुभव सुखदाय १३मु० ___ शब्दार्थ-साध्य रसी-मोक्ष के रसिक। निज तत्त्वे आत्मरूप में। उत्सर्ग= निश्चय मार्गी। निर्माय-माया रहित । अवंचता-सरलता। शुचि-पवित्र । भावार्थ-साध्य के रसिक, आत्म तत्त्व में लीन, उत्सर्ग मार्गी, निर्मायी, योग, क्रिया, क्रिया के फल, तथा अवंचन ( सरलता ) भावों से मुनि पवित्र अनुभव रूपी सुख को पाते हैं।-१३ आया जीते जीय+नाणी दमी रे, निश्चय निग्रह युत। . 'देवचन्द्र' एहवा निग्रन्थ जे रे ,ते मारा गुरु तत्त्व-१४ मु० शब्दार्थ-आया =आत्मा। जीत=जीतनेवाला । नाणी=ज्ञानी । दमी=दमन करने वाला। निग्नहरोकना । गुरुतत्त्व= गुरु तत्त्व में । भावार्थ-अपने बाह्य आत्मा को जीतने से जेता, ज्ञानी, दमी, निश्चय नय से इन्द्रियों का निग्नह करने वाले जो निग्नन्थ हैं, वे मुनि मेरे ( देवचन्द्र के ) गुरुतत्त्व में समाविष्ट हैं।-१४ * उ छरंगी +आणाजोत युआ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल-६ छठी"मनोगुप्ति" की _ "पुण्य प्रशंसिये" ए देशी ट तुरंगम चित्त ने कह्यो रे, मोह नृपति परधान । आत रौद्र नु क्षेत्र ए रे, रोक तूं ज्ञान निधान रे। १ मुनि मन वश करो मन ए आश्रव गेहो रे । मन ए* तारशे-मन स्थिर यतिवर तेहो रे ...मु०...२ शब्दार्थ-तुरंगम =घोड़ा। प्रधान =दिवान। आर्त आर्तध्यान । रौद्र रौद्रध्यान ।आश्रवगेह =पाप का घर। यतिवर=मुनि श्रेष्ठ। भावार्थ-तीन गुपियों में पहली गुप्ति मनोगुप्ति है। मन दो तरह का है, एक द्रव्य मन और दूसरा भाव मन। भाव मन का अर्थ है आत्मा के परिणाम और द्रव्य मन का अर्थ है मनोवर्गणा के पुद्गल । . मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण किये विना भाव मन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यह मन सन्नी अर्थात् गर्भज पंचेन्द्रिय जीवों के ही होता है। हे ज्ञान निधान मुनि ! मन को वश में करो। क्योंकि यह मन दुष्ट घोड़े समान है, वह जसे सवार को जंगल में भटका देता है, वैसे ही यह मन संसार में भटकाता है राजा के पास जैसे दिवान होता है वैसे ही मोहरूपी राजा के पास यह मन दिवान के समान है और आश्रव का धर तथा आतं-रौद्र ध्यान का क्षेत्र है। किंतु इस दुष्ट मन पर यदि काबू पा लिया जाय तो वह तार भी सकता है। इसलिए मन स्थिर वाला मुनि सारे मुनियों में श्रेष्ठ है-१-२ *मन ममता रसी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोगुप्ति की ढाल गुप्ति प्रथम ए साधु ने रे, धर्म शुकल नो रे कंद । वस्तु धर्म चिंतन रम्या रे साधे पूर्णानन्द -~-३ मु. शब्दार्थ-धर्म-शुल्क = धर्म ध्यान श्रुक्ल ध्यान। कंद=सार। चिंतन = विचारने में। ___ भावार्थ-मनोगुप्ति ही धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान का मूल है। ध्यानस्थ मुनि मन को रोक कर वस्तु धर्म के चिंतन में रमा हुआ पूर्णानन्द को पाता है । श्री उत्तराघ्ययन सूत्र में कहा हैगाथा-दवं गुण समुदाओ, खित्त ओगाह वट्टणा कालो। गुण पज्जाय पवत्ति, भावो निअ वत्थु धम्मो सो द्रव्य–अर्थात् गुण का समुदाय, क्षेत्र अर्थात् अवगाहना रूप प्रदेश, काल-- वर्तना, उत्पाद-व्यय, और ध्रौव्य, भाव-अर्थात् गुण-पर्याय की प्रवृत्ति । यह स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल तथा स्व-भाव रूप वस्तु धर्म होता है। तथा १ आचार धर्म-२ दयाधर्म-३ क्रिया धर्म और ४-वस्तु धर्म ऐसे चार भेद भी ठाणांग के चौथे ठाणे में है। इनमें से एक वस्तु धर्म को जाने विना शेष तीन धर्म फल दायक नहीं हो सकते। इसलिये वस्तु धर्म ही निश्चय धर्म है और बाको के व्यवहार धर्म हैं । इसलिये उपरोक्त पद्य में बतलाया हुआ वस्तु धर्म का चिंतन ही श्रेष्ठ है।-३ योग ते पुदगल जोगxछ रे, खेंचे अभिनव कर्म । योगवर्तना कंपना रे, नवी ए आतम धमों रे -४ शब्दार्थ-अभिनव-नये । योगवर्तना=योगों का व्यापार। कंपनाआत्म प्रदेशों की चंचलता। आतम धर्म=आत्मा का स्वभाव। xजोमवे रे,खांचे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय भावार्थ-पुद्गलों के संयोग से ही योगों की प्रवृत्ति होती है उससे नये कर्म बंधते हैं। योग प्रवृत्ति का अर्थ है आत्म प्रदेशों की चंचलता ( कंपन) । यह आत्म धर्म नहीं है। क्योंकि योगों की प्रवृत्ति और आत्म प्रदेशों की चंचलता आत्मा की विभाव दशा है-४ मु० । वीर्य चपल पर संगमी रे, एह न साधक पक्ष । ज्ञान चरण सहकारता रे, वरतावे दक्षो रे-५ मु. शब्दार्थ-परसंगमी पुद्गलों के संग से । सहकारता-सहायता में । दक्ष चतुर। भावार्थ-पुद्गलों के संयोग से प्रधृत होने वाला आत्मवीर्य, चंचल और पराश्रयी कहलाता है। यह साधक मन नहीं है। इसलिये दक्ष मुनि अपने मन को आत्म ज्ञान और चारित्र की सहायता में वरतावे। क्योंकि आत्म वीर्य के बिना ज्ञान और चारित्र की स्फुरणा नहीं होती।-५ रत्नत्रयो नी भेदना: रे, एह समल व्यवहार । त्रिकरण वीर्य एकत्वता रे, निर्मल आतमचारो रे-६ म० शब्दार्थ-भेदना=विराधना। समल = दोषयुक्त। त्रिकरण =तीन योग एकत्वताएकी भाव । आतमाचार आत्मा का आचार । भावार्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी रत्नत्रयो की भेदना ( विराधना ) अशुद्ध व्यवहार है। तीनों योगों के वीर्य को एकतानता आत्मा का निर्मल आचार है ज्ञान दर्शन चारित्र ये तीनों भेद तो व्यवहार की अपेक्षा से ही है निश्चय दृष्टि से तीनों एक ही है अत: अभेद है। -६ सविकल्पक गुण साधुना रे, ध्यानी ने न सुहाय । निर्विकल्प अनुभव रसी रे, आत्मानंदी थायोरे-७ मु० .. : भेदता * त्रिगुण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोगुप्ति की ढाल ४३ शब्दार्थ-सविकल्प विकल्प सहित। निर्विकल्प = विकल्प रहित-स्थिर । भावार्य-सविकल्पकदशा-विकल्प का अर्थ है भेद । एक के बाद एक पदार्थ का चिंतन करना। ऐसे विचारों को श्रेणी को विकल्प दशा कहते हैं। वह अनित्य, अशरण आदि षोडश भावानाओं में से किसी एक भावना का भाना, तथा जीवादिक नव तत्त्वों में से किसी एक का स्वरूप चिंतन, ज्ञान, दर्शन-चारित्र आदि पृथक-पृथक गुणों का मनन, तीन मनोरथों में से कोई एक मनोरथ का विचार करने से होती है। यह विकल्प भावना साधु के लिये गुण वाली होने पर भी ध्यानी मुनि को नहीं सुहाती। यद्यपि यह दशा अशुभ में से निकाल कर शुभ में ले जाती है इसलिये गुणदायिनी है। परंतु जो मुनि निर्विकल्प अवस्था को चाहता है, उसे यह अच्छी नहीं लगती। निर्विकल्प चिंतन में आत्मा के गुणों को गुणी से अभिन्न माना जाता है। जो आत्मा है वही ज्ञान है, और जो ज्ञान है वही आत्मा है। रत्नों की ज्योति रत्नों से भिन्न नहीं है। इस अभेदपरक चिंतन को अखंडात भी कह सकते हैं। निर्विकल्प दशा से ही आत्मानन्द की प्राप्ति होती है अतः मुनि उसीके रस का अनुभव करे। अर्थात् मन के विकल्पों को हटाकर चितवृत्ति को आत्मोंपयोग में केन्द्रित करे। शुक्ल ध्यान श्रुतावलंबनी रे, ए पण साधन दाव । वस्तु धर्म उत्सर्ग*में रे, गुण गुणी एक स्वभावोरे--८ मु. शब्दार्थ-श्रुतावलंबन=ज्ञान का सहारा। भावार्थ- शुक्ल ध्यान और श्रुत का अवलंबन भी सिद्धि प्राप्ति के लिये अवश्य साधन हैं । परंतु उत्सर्ग मार्ग में तो वस्तु धर्म ही साधन है । अर्थात् गुण एवं गुणी एक स्वभाव वाले हैं। शुक्ल ध्यान और श्रुत का आत्मा से कोई भेद है ही नहीं।-८ *उद्यरंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय पर सहाय गुण वर्तना रे, वस्तु धर्म न कहाय । साध्यरसी तो किम ग्रहे रे, साधु चित्त सहायोरे--६ म. शब्दार्थ-पर सहाय=पुद्गलों के सहारे भावार्थ-पर द्रव्य की सहायता से गुण की प्रवृत्ति होने पर उसे आत्म-धर्म नहीं कहा जाता। आत्म धर्म रूप साध्य को प्रगट करने वाला रसिक मुनि अपने 'चित्त से पर सहायता पर के उपयोग का आश्रय कैसे ले ? । अर्थात् आत्मा आत्मा की सहायता ले अपने उपयोग में ही रहे । आत्मरसी: आत्मालयी रे, ध्याता तत्व अनंत । स्यादवाद ज्ञानी म नि रे, तत्व रमण उपशांतोरे--१० म. शब्दार्थ-आत्म रसी आत्मा के रसिक । आत्मा लयी=स्वभाव में लीन । ध्याता ध्याने वाला। उपशांत=कषायों को शांत करने वाले। __ भावार्थ-आत्मा गुण या स्वभाव के रसिक, आत्मा में लीन, अनंत तत्व के ध्याता, स्याद्वाद के ज्ञाता, तत्त्व में रमण करने वाले मुनि कषायों एवं विकल्पों से उपशांत होते हैं।-१० नवि अपवाद रुचि कदा रे, शिव रसिया अणगार । शक्ति यथागमxसेवतां रे, निदे कर्म प्रचारोरे-११ मु. शब्दार्थ--अपवाद रुचि अपवाद सेवन करने की अभिलाषा। अणगार मुनि । शक्ति ताकत । यथागम शास्त्रों में कहा है वैसे। कर्म प्रचार कर्म बंधन को। भावार्थ-मुक्ति के रसिक मुनि कभी भी अपवाद-सेक्न की रुचि न करे। ग:रुचीxअथामे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोगुप्ति की ढाल ४५ यदि कदाचित् शारीरिक और मानसिक परिस्थिति के वश आगमोक्त विधि से अपवादों का सेवन करना पड़े तो भी उसको हेय समझते हैं कर्मों के उदय वश जो अपवाद-प्रवृत्ति हो जाती हैं उन कर्मों की निंदा करते हैं । अर्थात् उत्सर्ग मार्ग पर क्यों चलने की अभिलाषा रखते हैं ।--११ साध्य=सिद्ध निज तत्वता रे, पूर्णानन्द समाज । 'देवचन्द्र' पद साधतां रे नमीये ते म निराजोरे--मनि-१२ भावार्थ --पूर्णानन्द मयी निजतत्वता रूप साध्य, जिनको सिद्ध हो गया है, अथवा जो उसकी साधना में लगे हैं, उन मुनि महाराजों को श्री देवचन्द्र जी नमस्कार करते हैं। --१२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल ७ सातवीं “वचनगुप्ति" __ "सलूणा" की देशीवचन गुप्ति सूधी धरो, वचन ते कर्म सहाय । उदयाश्रित जे चेतना, निश्चय तेह अपाय-सलणे-वचन-१ शब्दार्थ-उदयाश्रित = उदय काल के आधीन। अपाय =दोष । भावार्थ-हे मुनि ! वचन गुप्ति को अच्छी तरह धारन करो। क्योंकि वचन मात्र ही कर्म बन्ध का सहायक है। भाषा पर्याप्ति रूप बांधे हुये कर्मो का उदय ही वचन प्रवृत्ति की कारण हैं। चेतन का कर्मों के उदयाधीन होना निश्चय दृष्टि से ल्याज्य है,। मौन रूप वचनगुप्ति हो उपादेय है-१ वचन अगोचर आतमा, सिद्ध ते वचनातीत । सत्ता अस्ति स्वभाव में रे, भाषक भाव अतीत-२ व० शब्दार्थ-वचन अगोचर वाणी से कहा नहीं जाता। वचनातीत =वचन से कहा नहीं जाता । सत्ताः ताकत । अस्ति =है | भाषक भाव अतीत= बोलने के भाव से रहित। भावार्थ--आत्मा वचनों से अगोचर हैं-अर्थात् आत्म स्वरूप वचनों द्वारा नहीं कहा जा सकता। त्तिद्ध भगवान भी वाणी रहित हैं। क्योंकि वाणी पुद्गल मयी है और सिद्धों का पुद्गलों से कोई संबंध नहीं। अभाषक दशा की सत्ता आत्म स्वभाव में रही हुई है । क्योंकि अपनी आत्मा भी सत्ता में सिद्धों के समान ही है।-२ अनुभव रस आस्वादता, करता आतम ध्यान । वचन ते बाधक भाव छै रे, न वदे मुनिय निदान-३-व० शब्दार्थ-निदान =कारण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनगुप्ति की ढाल ४७ भावार्थ-अनुभव रस का आस्वादन लेते हुये तथा आत्म ध्यान करते हुये मुनि वचन से बिल्कूल न बोले। क्योंकि बोलना आत्म स्वरूप की स्थिति में बाधकः है। इसलिये वचन गुप्ति ही श्रेष्ठ है।-३ वचनाश्रव पलटाववा, मुनि साधे स्वाध्याय । तेह सर्वथा गोपवे, परम महारस थाय-४ व० . शब्दार्थ-बचनाश्रव=वचन द्वारा पापों का ग्रहण। पलटाववा=पलटने के लिये। गोपवे = रोके। परम महारस=आत्मानंद ।। भावार्थ-अशुभ वचन रूपी आश्रव से बचने के लिये मुनि स्वाध्याय करे । अर्थात् शुभयोग में प्रवर्तावे। फिर शुभ वचन को भी सर्वथा रोक करके परम महारस रूप आत्मानंदी-मुक्त बन जाये -४ भाषा पुदगल वर्गणा, ग्रहण निसर्ग उपाधि । करवाxआतम वीर्य ने, शाने प्रेरे साध-५ व० शब्दार्थ-वर्गणा=पुद्गलों का समूह । निसर्ग छोडना। शाने= किसलिये। प्रेरे=प्रेरणा करे।। ___ भावार्थ-भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करना, तथा उनको छोड़ना, अर्थात् बोलना, आत्म स्वभाव के लिये उपाधि है। फिर मुनि अपनी शक्ति को उस तर्फ ( वचन की तर्फ ) क्यों लगाये ? अर्थात् नहीं लगाये । --५ यावत् वीरज चेतना, आतम गुण संपत्त । तावत् संवर निर्जरा, आश्रव पर आयत्त । ६ व० शब्दार्थ-यावत् =जब तक। वीरज चेतना - चैतन्य शक्ति। संपत्त = संप्राप्त । पर आयत्त-पुद्गलाधीन । xकरतां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय भावार्थ-जब तक चैतन्य शक्ति आत्म गुणों को प्रेरणा देती है, तब तक कर्मों का संवर और निर्जरा होती हैं। इससे विपरीत आत्मा यदि पर सहायक बन जाती है तो नये कर्मों का ग्रहण ( आश्रव ) हो जाता है। -६ इम जाणी स्थिर संयमी, न करे चपल पलीमंथ । आत्मानंद आराधतां, अत्तथी *निर्ग्रन्थ । -७ व० शब्दार्थ-चपल पलोमंथ =चपलता रूपी दोष । अत्तत्थी आत्मार्थी । भावार्थ-आत्मा और पुद्गल का स्वरूप पिछान करके स्थिर संयमी मुनि चपलता रूपी पलोमंथ ( दोष ) न करे। आत्मा की अकंप-दशा ही मूल स्वभाव है। चपलता विकार-जन्य है। इसलिये आत्मार्थी निग्रंथ आत्मानंद की आराधना करे। -७ साध्य 'सिद्ध+परमातमा, तसु साधन उत्सर्ग । बारे मेदे तप विषे, सकल श्रेष्ठ व्युत्सर्ग। ...८ व० शब्दार्थ-बारे भेदे बारह प्रकार के। तपविषे तपस्या में। व्यत्सर्गवोसिराना-छोडना। __ भावार्थ-सिद्ध परमात्मा का स्वरूप तो साध्य है, आत्मा साधक है, साधन है उत्सर्ग--अर्थात् परभावों का त्याग । छःबाह्यतथा छः आभ्यंतर इन बारह प्रकार की तपस्याओं में अत्सर्ग ही सर्व श्रेष्ठ तपस्या है। उत्सर्ग दो प्रकार का है द्रव्य उत्सर्ग और भाव उत्सर्ग। कायोत्सर्ग-भक्तपान उत्सर्ग-उपधि उत्सर्ग तथा गणोत्सर्ग आदि द्रव्य-उत्सर्ग के अंतर्गत हैं। भावोत्सर्ग तीन प्रकार का है १ भवोत्सर्ग.२ कर्मो त्सर्ग. ३ तथा कषायोत्सर्ग। कषाय के त्याग से कर्म का त्याग तथा कर्म के त्याग से भव का त्याग फलित होता है ।--८ * आज्ञाय+शुद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन गुप्ति की ढाल भाव | समकित गुणठाणे करयो, साध्य अयोगी उपादानता तेहनी, गुप्तिरूप स्थिर भाव...६...व ०२ शब्दार्थ - समकित गुणठाणे = चौथे गुणस्थान में । अयोगी भाव = योगों से रहित बनने का भाव । उपादानता = मूल कारण । भावार्थ- सम्यग् दृष्टि गुणस्थान प्राप्त होते ही आत्मा ने अपना साध्य अयोगी भाव स्थिर कर लिया कि मुझे अयोगो बनना है। अस अयोगी भाव का उपादान ( मूलकारण ) आत्मा का गुप्ति रूप स्थिर भाव ही है । - गुप्तिरूप गुप्ते रम्या, कारण समिति प्रपंच ॥ करता स्थिरता ईहता, ग्रहे तत्व गुण संच...१० व० शब्दार्थ - प्रपंच = विस्तार | इहता = चाहते हुये । संच = संचय भावार्थ - आत्मा गुप्ति रूप है अर्थात् योगों की स्थिरता रूप गुप्ति ही आत्मा का स्वभाव है अतः गुप्ति में रमण करे । संयम साधन आदि कारणों से आवश्यकता पड़ने पर पांच समितियों का सेवन करना पड़ता है । अतः समिति रूप प्रपंच प्रवृत्ति को करने पर भी स्थिरता को ही चाहते हैं इस तरह गुप्ति एवं समिति का यथोचित पालन करते हुये मुनि तत्त्व और गुणों का संचय करे । १० उत्सर्गनी, दृष्टि न चूके तेह ॥ प्रणमे नित्यप्रति भाव सू', 'देवच'द्र' मुनि तेह सलूणे वचन गुप्तिसूधी धरो... ११ अपवादे ० भावार्थ - जो मुनि अपवाद स्वरूप पांच समितियों का सेवन करते हुये भी गुप्ति रूप उत्सर्ग मार्ग के लक्ष्य को नहीं भूलते हैं । अर्थात् जिन्हें साध्यरूप 'गुपियों का ही ध्यान हरसमय बना रहता है । उन मुनिजनों को मुनि श्री देवचन्द्र जी भावना पूर्वक नितप्रति वंदना करते हैं । - ११ *रुची Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ૪૨ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल ८ आठवीं काया"गुप्त" "अरणिक मुनिवर चोल्या गोचरी" ए देशी गुप्ति सभारो रे तीजी मुनिवरु, जेहथी परमानंदो जी मोह टले धनघाती परगले, प्रगटे ज्ञान अमदोज़ी...गुप्ति १ शब्दार्थ-धनधाती-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय-अंतराय । परगले गलजाय ! अमंद-एक जैसा रहनेवाला ।। भावार्थ-हे मुनि ! तीसरी काया गुप्ति धारन करो। इसके आराधन से ही परमानंद की प्राप्ति होती है। मोह कर्म टलता है। और घनघाती (ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय-अंतराय) कर्मों का नाश हो जाता है। फिर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है-१ किरिया शुभ अशुभ भव वीज छै-तिण तजी तनु व्यापारोजी चंचल भाव ते आश्रव मूल छे, जीव अचल अविकारो जी गु०२ ___ शब्दार्थ-भवबीज संसार का कारण । तनुव्यापार-काया योग । अविकार=विकार रहित । भावार्थ-शुभ तथा अशुभ दोनों ही क्रियायें संसार के बीज हैं। अतः काया के योग (प्रवर्तन) को ही छोड़ो। कायिक चपलता ही आश्रव का मूल है। शुभ कार्यों के लिए किया गया कायिक व्यापार यद्यपि शुभ बंध के लिये होता है। फिर भी है तो बंधन ही। जीव का स्वरूप तो अचल ( स्थिर ) और अविकारी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काया “गुप्ति की ढाल इन्द्रिय विषय सकल नो द्वार ए, बंध हेतु दृढ़ एहो जी। अभिनव कम ग्रहे तनु योग थी, तिण स्थिर करिये देहोजी ३ शब्दार्थ--अभिनव-नये । भावार्थ:--- पांचों इन्द्रियों के समस्त विषयों का द्वार यह शरीर है। और यही कर्म बंध का दृढ कारण है। कायिक योग से नये कर्मों का ग्रहण होता है अतः हे मुनि ! इस कायिक योग को रोक कर देह को स्थिर करो-३ आतमवीर्य स्फुरे परसंग जे, ते कहीये तनुयोगो जी। चेतन सत्ता रे परम अयोगी छै निर्शल स्थिर उपयोगो जी।४। शब्दार्थ-स्फुरे काम करता है। उपयोग-ज्ञान गुण । भावार्थ-पुद्गलों के संयोग से जो आत्मवीर्य ( करण वीर्य) की स्फुरणा होती है, उसका नाम काया-योग है। चेतन की सत्ता तो परम अयोगी है। वह अयोगी दशा निर्मल और स्थिर उपयोग वाली है। -४ यावत कंपन तावत बंध छै, भाख्यु भगवई अंगेजी। ते माटे ध्र व तत्व रसे रमे-माहण ध्यान प्रसंगे जी ।। गु० । ___ शब्दार्थ-यावत्= जबतक । कंपन=आत्म प्रदेशों की चंचलता। ताक्त्= तबतक। ध्रुव-निश्चल। माहण=मुनि। __ भावार्थ- श्री भगवती सूत्र में कहा है कि आत्म प्रदेशों का अबतक कंपन है ( सूक्ष्म हलन चलन ) है, तबतक बंधन है । तेरहवें गुणस्थान तक योग (चंचलता) है। योग है वहां बंधन है। इसलिये मुनि शाश्वत-आत्म-तत्त्व-अनुभव रस में रमण करता हुआ ध्यानादिक के प्रसंग में कायिक चपलता का सर्वया त्याग कर lain Editionelle E Rersonal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय बीर्य सहायी रे आतम धर्मनो-अचल सहज अप्रयासो जी। ते परभाव सहायी किम करे-मुनिबर गुण अबासो जी।६।गा ___ शब्दार्थ--सहायी सहायक। अप्रयास-प्रयत्न के बिना। गुणआवास= गुणों के धर। भावार्थ-वीर्य-आत्मा का शक्ति गुण है। वह आत्म-धर्म का सहायक है यह कार्य स्वाभाविक स्थिर तथा अप्रयत्न जन्य है । करणवीर्य अथात् इन्द्रिय जनित वीर्य, (प्रवृति) चल, कृत्रिम, तथा प्रयासजन्य है। इसलिये गुणों के आवास मुनि अपने आत्म-वीर्य को पुद्गलों का सहायक क्यों करे ? अर्थात् उसे आत्म धर्म में ही लगावे। आत्मा का स्वभाव में स्थिरता रहना सहज है उसे छोड़कर शरीर एवं इंदियजन्य प्रयास रूप परभाव प्रवृत्तियाँ में मुनि क्यों प्रवृत्त हो। अर्थात् नहीं होते।-६ खती मुत्ति युति अकिंचनी, शौच ब्रह्म धर धीरोजी। विषम परीषह सैन्य विदारवा, वीर परम सौंडीरोजी ॥७मु०॥ शब्दार्थ-खती-क्षमा। मुत्ति=निर्लोभता। अकिचनी-अपरिग्रही । शौच आंतरिक पवित्रता । ब्रह्मधर ब्रह्मचारी विषम-कठिन । सौंडीर= शूरवीर ! भावार्थ-क्षमाशील, निर्लोभी, अकिंचनी ( परिग्रह रहित ) पवित्र, ब्रह्मचारी, और धीर मुनि परीषहों की सेना को जीतने के लिये परम वीर होते हैं ॥७॥ कर्म पडल दल क्षय करवा रसी, आतम ऋद्धि समृद्धोजी। देवचन्द्र जिन आणा पालता, वंदो गुरु-गुण वृद्धो जी ॥८मु०॥ शब्दार्थ-कर्म पडल-कर्मो के परदे । गुणवृद्ध=गुणोंसे महान् ।। भावार्थ-कर्मो के आवर्ण समूह को क्षय करने के इच्छुक, आत्म-गुणों की ऋद्धि से समृद्ध, जिनाज्ञा के पालक, गुणों से वृद्ध, श्री सद्गुरु को वंदन करने के लिये श्री देवचन्द्रजी महाराज कहते हैं ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल नवमी "मुनि गुणस्तुति _ "सुमति चरण कज आतम अरपणा" एदेशी" धर्म धरंधर मुनिवर Xसेगिये, नाण चरण सम्पन्न । सुगुणनर। इद्रिय भोगतजी निज सुखभजी, भवचारक उदविन्न सु०प०१। शब्दार्थ-सम्पन्न सहित । भवचारक संसार रूपी केद। उद्विग्न= खेद पाये हुए। भावार्थ--हे सद्गुणी मानव ! धर्म की धुरा को धारन करनेवाले, ज्ञान और चारित्र से युक्त, इन्द्रियों के सुख को छोड़कर आत्मिक सुख के भोक्ता संसार रूपी चारक ( जेल ) से खिन्न मुनिजनों की सेवा करो ॥ १ ॥ द्रव्य भाव साची श्रद्धा भरी, परिहरी शंका दोष । सु० । कारण कारज साधन आदरी,साधे*साध्य संतोष सु०१२ शब्दार्थ-श्रद्धा-विश्वास । संतोष संतोषपूर्वक । भावार्थ-सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर सच्ची श्रद्धा होना द्रव्य श्रद्धा है और अपनी आत्मा ही देव, आत्मा ही गुरु और आत्मा ही धर्म है, ऐसी श्रद्धा होना भाव श्रद्धा है । शंका, कांक्षा आदि दोषों को टाल करके मुनि दोनों प्रकार की श्रद्धा धारण करते हैं । श्रद्धा प्राप्ति के चार कारण हैं, १ निमित्त कारण, २ उपादान कारण, ३ असाधारण कारण, ४ और अपेक्षा कारण । निमित्त कारण अनेक हो सकते हैं-जिन दर्शन जिनोपदेश श्रवण आदि २ । उपादान कारण केवल अपनी आत्मा ही है । असाधारण कारण वह है, जिस योगाचारण से आत्मा का xसलहियै Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मुनि गुण स्तुति की ढाल' कार्य सिद्ध होता हो । अपेक्षा कारण का अर्थ है आवश्यकता-जैसे मोक्ष सिद्धि में मनुष्यभव और वज्र ऋषभ नाराच संघयण ( शरीर की सुदृढ रचना ) की पूर्ण अपेक्षा है । इनमें से जिन-जिन कारणों से आत्मा को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ, वह एक कार्य हो चुका । यही समकित रूपी कार्य चारित्ररूपी कार्य का कारण बन जाता है। चारित्ररूपी कार्य मुक्ति का कारण है ही। इस प्रकार कारण और कार्य को साधनरूप में स्वीकार करके मुनि संतोषपूर्वक अपने साध्य को साधे ॥२॥ गुण पर्याये वस्तु परखता, सीख उभय भंडार । सुगुणनर । परिणति शक्ति स्वरूपेपरिणमी, करतातसुव्यवहार । सु०३ धा शब्दार्थ-गुण पर्याये=गुण और अवस्थाओं से । उभय दोनों भावार्थ-गुण तथा पर्याय से वस्तु को परखनेवाले, ग्रहण शिक्षा ( अतादि ग्रहण करना ) और आसेवन शिक्षा ( ब्रतका पालन ) के धारन करने वाले, आत्मा की परिणमन शक्ति के स्वरूप में ही परिणमन करनेवाले, मुनि व्यवहार ( आचार ) भी तदनुसार ही करेंगे । ३ । लोकसन्ना वितिगच्छा वारता, करता संयम वृद्धि । सुगुण । मूल उत्तर गुण सर्व सभारता, करता* आत्म शुध्दि । सु०४धा शब्दार्थ-लोकसन्ना लोकप्रवाह । वितिगिच्छा-धर्म के फल में संदेह । भावार्थ-लोक संज्ञा अर्थात् जो गडरिया प्रवाह रूप विवेक शून्य लोकाचार हो उसे तथा विचिकित्सा अर्थात् करनी के फलों में संदेह हो उसे छोड़कर संयम की वृद्धि करे। मूल गण अर्थात् पांचमहाव्रत तथा उत्तर गुण अर्थात् दस पच्च क्खाणदि को संभालता हुआ मुनि आतमा की शुद्धि करे ।-४ *धरताधरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय ५५ श्रुतधारी श्रुतधर-निश्रा-रसी, बशी करया त्रिक योग । सु० । अभ्यासी अभिनव श्रुत सारना, अविनाशी उपयोग। सुशध० शब्दार्थ-श्रुतधारी=ज्ञानी । श्रुतधरनिश्रा-बहु श्रुतो के आधीन । अविनाशी अचल । ५। ___भावार्थ-मुनिस्वयं श्रुतधारी ( ज्ञानी ) होते हुए भी बहुश्रुती के निश्रा ( आधीन ) रहनेवाला, तीनों योगों को वश करनेवाला; नये-नये ज्ञान के सार का अभ्यास करनेवाला; अविनाशी उपयोग वाला बने । ॥ ५ ॥ द्रव्य भाव आश्रव मल टालता, पालता संयम सार। सांची जैन क्रिया संभारता, गालता कर्म बिकार ।सु०६०। ___ भावार्थ-कर्म पुदगलों के ग्रहणरूप द्रव्य आश्रव; तथा द्रव्य आश्रव के कारण रूप मिथ्यात्वादि पांच भाव आश्रवों के मल को टालते हुए; संयम को पालते हुए जैनमतानुसार सची क्रियायें शुभ प्रवृत्ति विधिपूर्वक करते हुए मुनि कर्म विकारों को गाल देते हैं। ६। सामायक आदिकगण श्रेणी में, रमता चढ़ते रे भाव ।सुगणा तीनलोक थी भिन्न त्रिलोक में, पूजनीक जसु पाव ।सु०७०) ___ शब्दार्थ...पूजनीक पूज्य । जसु=जिसके । पाव-चरण । भावार्थ-समभाव रूपी गुण श्रेणी में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए भावों में रमते हुए; तीनलोक से भिन्न अर्थात संसारी जीवों से भिन्न प्रकार की शुद्ध आत्म परिणतिवाले, मुनियों के चरण त्रिलोकी पूजित हैं। ७ । अधिक गणी निज तुल्य मणी थकी, मिलता जे मुनिराज । परम समाधि निधि भव जलधि ना, तारण तरण जहाज।सु०८धा For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिगुण स्तुति की ढाल भावार्थ - अपने से अधिक गुणी के साथ तथा समान गुणवालेके साथ वसने वाले; परम समाधि के भण्डार; मुनि भवसमुद्र से तरने और तराने के लिये जहाज़ के समान हैं। ८ । समकितवंत संयम गुण ईहता, ते धरवा असमर्थ । सु० । संबेग पक्षी भावे शोभता, कहेता साचो रे अर्थ । सु०।१०। शब्दार्थ-ईहता=चाहते हुए। भावार्थ-सम्यग़ ज्ञान और क्रिया युक्त मुनियों की स्तुति के पश्चात संवेग पक्षी मुनियों का वर्णन करते हैं । ये मुनि समकित सहित हैं। और संयम के गुणों को चाहते हैं । परन्तु वर्तमान में किसी कारण से उन गुणों को धारण करनेमें असमर्थ हैं । सम्वेग ( वैराग्य ) पक्ष के भाव से शोभित हैं। चाहे आप नहीं पालते हैं, परन्तु प्ररूपणा तो सच्ची करते हैं ॥ ६ ॥ आप प्रशंसाए नबी माचता, राचता मुनि गुण रंग ।सु०। अप्रमत्त मुनि श्रत तत्त्व पूछवा, सेवे जासु अभंग । १० । ध। शब्दार्थ-आप प्रशंसाए=निज की स्तुति में । अप्रमत्त अप्रमादी । जासु-उन्हे अभंग-निरंतर । भावार्थ-वे अपनी प्रशंसा सुनकर फूलते नहीं हैं । मुनि के गुणरूपी रंग में रंगे हुए हैं; रुची रखते हैं । श्रुत-तत्त्व प्राप्त करने के लिये किसी से कुछ पूछना, पड़े तो सदा तैयार ( अप्रमत्त ) हैं । और विशिष्ट श्रुतधारी पुरुष की अभंग भावों से निरन्तर सेवा करते हैं । १० । सदहणा आगम अनुमोदना, गुणकरी संयम चाल :।सु०। व्यवहारे साची ते साचवे, आयति लाभ संभाल। सु०॥११॥धा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय शब्दार्थ- सद्दहणा श्रद्धा। आगम शास्त्र की। अनुमोदना=प्रशंसा । आयति भविष्यकाल में। भावार्थ...चाहे आप पालन नहीं कर सकता हो फिर भी आगमों के प्रति निष्ठा तो पूरी रखे। तथा कोई पूर्णतया पालन करनेवाला हो; उसकी अनुमोदन (प्रशंसा ) करता रहे ।ये दो बातें संयम मार्ग में बड़ी गुण करनेवाली है। आगमों की निष्ठा से मुनि क सम्मुख आदर्श सही रहेंगा। तथा गुणीजनों की अनुमोदना से अपनी कमजोरियां हटाने की प्रेरणा मिलेगी। मुनि के वेष तथा वेषोचित क्रियाओं से भी महान लाभ है । अपने-आप में भाव चरित्र नहीं है । यह स्पष्ट समझते हुए भी द्रव्य क्रियायें करते रहने से भविष्य में भाव चारित्र आने की सम्भावना रहती है । ११ । दुक्करकारी थी अधिका कह्या, वृहत्कल्प व्यवहार ।सु०। उपदेशमाला भगवई अंग में, गीतारथ अधिकार सु०।१२।०ध। शब्दार्थ...दुक्करकारी-कठिन क्रिया करनेवाले । अधिका श्रेष्ठ । गीतार्थ= ज्ञानी । अधिकार-वर्णन । भावार्थ --बृहत कल्प-व्यवहार, भगवती; तथा उपदेशमाला आदि में जहां गीतार्थ का अधिकार है; वहां मास-मास की उतकृष्ट तपस्यायें तथा दुष्कर क्रियायें करनेवालों से भी अल्पक्रिया वाले गीतार्थ मुनियों को श्रेष्ठ गिनाया है। अज्ञानी पुरुष जो कर्म अनेक वर्षो में खपाता है; उससे भी अधिक कर्म ज्ञानी क्षण मात्र में खपा देता है। भाव चरण थानक फरस्या बिना, न हुवे संयम धर्म ।सु०। तो शाने झुठ ते उच्चरे-जे जाणे प्रवचन मर्म ।सु ०।१३।१०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ मुनि गुण स्तुति की डाल शब्दार्थ-चरण थानक-चारित्र के परिणामों के स्थान। मुटु असत्य । शब्दार्थ-संयम के स्थानों को स्पर्श विना भाव चारित्र नहीं हो सकता। इसलिये जिनवाणी का मर्म जानने वाला मुनि झूठ ही क्यों कहेगा, कि मैं भाव चारित्र वाला हूँ।-१३ जस लोभे जन* सम्मत थायवाx, पर मन+रंजन काज सु। ज्ञान क्रिया द्रव्यतः विधि साचवे, तेह नहीं मुनिराज |सु १४ध। शब्दार्थ-जसलोभे यशोलिप्सा से । जन सम्मत लोकमान्य । परमन लोगों के मन । तेह-वह भावार्थ-- भाव से नहीं, किंतु द्रव्य से भी ज्ञानाभ्यास तथा चारित्र की क्रियायें करते समय यदि यह भावना बनी रही कि इससे लोग मुझे पंडित और चारित्रवान कहेंगे। तथा अच्छ व्याख्यान से लोगों का चित्तरंजन करूंगा तो मुझे लोगों का समर्थन मिलता रहेगा। इस उद्देश्य से उपरोक्त द्रव्य (बाहरी) विधियाँ करने पर भी वह मुनि नहीं है ।-१४ बाह्य दया एकांते उपदिशे, श्रुत आम्नाय बिहीन । सु वग परि ठगता मूरख लोकने, बहु भमशे ते दीन । सु १शष। - शब्दार्थ-एकांते सिर्फ। उपदिशे-कहते हैं। श्रुत आम्नाय ज्ञान की परंपरा। विहीन-रहित । बग परे बगले के समान। भमसे संसार में जन्म ण करेंगे। दीन-गरीब । भावार्थ-आत्म गुणों की रक्षा रूप जो भाव दया है, उसे पहचाने बिना एकांत रूप से बाहय दया ( जीवरक्षा ) का उपदेश देनेवाले श्रुत आम्नाय *निजxथापवा+जन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रबचन माता सज्झाय ५६. ( परंपरा ) से हीन हैं। मीन जैसे मूढ लोगों को बगले के समान ठगने वाले दीन मुनि संसार में बहुत काल पर्यंत परिभ्रमण ( जन्म मरण ) करेंगे । —१५ अध्यातम परिणति सोधन ग्रही, उचित वहे आचार । सु० । जिन आणा अविराधक पुरुष जे, धन्य तेनो अवतार | सु. ०१६धा शब्दार्थ —— ग्रही ग्रहण करके । उचित = योग्य | अविराधक = आराधना करनेवाला | अधतार = जन्म भावार्थ — आध्यात्मिक परिणतिके साधनों को ग्रहण करके जो उचित आचार का पालन करता I तथा जिनाज्ञा का आराधना करता है, उस अविराधक मुनि का मानव - जन्म सफल है ।— -१६ द्रव्य क्रिया नैमित्तिक हेतु छै, भावधर्म लयलीन । सु० । निरुपाधिकता जे निज अंशनी, माने लाभ नवीन | सु० | १७६ । शब्दार्थ - निरुपाधिकता = आत्म प्रदेशों की उज्वलता । नवीन =नया | भावार्थ- -- द्रव्य क्रियायें तो केवल निमित्त कारण हैं । भावधर्म तो आत्मा में लीन होना है । भावना युक्त द्रव्य क्रियायें करने से अपनी आत्मा की जितने अंशों में निरुपाधिकता ( निर्जरा से उत्पन्न उज्वलता, ) स्वभाव में स्थिरता हो, मुनि उसे नया अपूर्व लाभ समझे ।—१७ परिणति दोष भणी जे निंदता, कहेता परिणति धर्म । सु० । योग ग्रंथ ना भाव प्रकाशता तेह विदारे हो कर्म | सु० १८|| शब्दार्थ — परिणतिदोष = विभाव दशा | योग थ = योगदृष्टि समुच्चय, योगशास्त्र, ज्ञानसार, द्रुम आदि । विदारे=क्षय करे | Jain Educationa International परिणतिधर्म = स्वभाव दशा । अध्यात्मसार, अध्यात्म कल्प For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि गुण स्तुति की ढाल भावार्थ-विभाव परिणति की निंदा करते हुये, स्वभाव परिणति को धर्म बतलाते हुये, योगाभ्यास संबंधी ग्रन्थों के भावों पर प्रकाश डालते हुये, मुनि अपने पूर्व संचित कर्मों को नाश करते हैं। -१८ अल्प क्रिया पण उपकारी पणे, ज्ञानी साधे हो सिद्ध । सु० । देवचन्द्र सुविहित मुनि वृन्दने, प्रणम्या सयल समृद्ध |सु०१६धा शब्दार्थ- अल्यक्रिया-थोड़ी क्रिया करने वाले। सुविहित=अच्छे । सयल= सारी। ___ भावार्थ-स्वयं अल्प क्रिया करने वाले होते हुये भी ज्ञानी मुनि अपने सदुप देशों द्वारा परोपकार करते हुये मुक्ति को साध लेते हैं। सुविहित (सदनुष्ठानी) मुनि समूह को प्रणाम करने से ही आत्मा के गुण रूपी सकल समृद्धि प्राप्त हो जाती है। यों श्री देवचन्द्रजी महाराज कहते हैं।-१६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " प्रशस्ति” "कलश" तेतरिया रे भाई ते तरिया, जे जिन शासन अनुसरिया जी । जेहकरे सुविहितमुनि किरिया, ज्ञानामृतरसदरियाजी - तेतरिया |१| भावार्थ-वे संसार समुद्र से तरगये । भाई ! वे ही तर गये । जिन्होंने जिन शासन का अनुसरण किया । जो वर्तमान ज्ञानामृत रूपी रस के समुद्र, सुविहित ( भले ) मुनि जनोचित क्रिया करने वाले तर गये । - १ विषय कषाय सहु परिहरिया, उत्तम समता वरिया जी । शील सन्नाह थकी पाखरिया, भव समुद्र जल तरिया जी | २ते | भावार्थ- पांच इन्द्रियों के २३ विषयों तथा क्रोध कषायों को छोड़कर उत्तम समता को वरने वाले, मोह और काम को जीतने वाले, ब्रह्मचर्य का वख्तर पहनने वाले, मुनि भवसमुद्र से तर गये । २ समिति गुप्ति सूँ जे परवरिया, आत्मानन्दे भरिया जी । अव द्वार सकल आवरिया, वर संवर संवरिया जी । ३ ते० । भावार्थ--पांच समिति और तीन गुप्ति से सहित, आत्मानंद में मग्न, पांच आश्रव द्वारों को रोकने वाले, पांच संवरों से सहित मुनि तर गये । - ३ खरतर मुनि आचरणा चरिया, राजसागर गुण गिरुआ जी । ज्ञानधर्म तप ध्याने वरिया* श्रुत रहस्य ना दरिया जी |४| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति भावार्थ खरतर गच्छ की आचार परम्परा को पालन करने वाले, गुणों से महान, राजसागर नाम के उपाध्याय हुये। उनके शिष्य श्री ज्ञानधर्म नामक उपाध्याय भी श्रुत रहस्य के साग़र तप और ध्यान से युक्त हुये।--४ । दीपचन्द्र पाठक पद धरिया, विनय रयण सागरिया जी। देवचन्द्र मुनिगुण उच्चरिया, कर्म अरि निर्जरिया जी । ५ ते । भावार्थ-उनके बाद श्री दीपचन्द्र नामक उपाध्याय विनय रूपी गुण के सागर हुये। उनके शिष्य श्री देवचन्द्र ने इन समझायों की रचना द्वारा मुनि गुणों की स्तुति करते हुये कर्मों की निर्जरा की ।-५ सुरगिरि सुंदर जिनवर मंदिर, शोभित नगर सवाई जी। नवानगर चोमास करीने, मुनिवर गुण स्तुति गाई जी ।६।ते। भावार्थ ----मेरुगिरी के तुल्य उंचाईवाले तथा उसके समान सुन्दर जिन मन्दिरों से शोभित नवानगर ( जामनगर ) में चौमासा किया, तब यह मुनि गुणों की स्तवना बनाई ॥ ६ ॥ मुनिगुण माला गुणे विशाला, गावो ढाल रसाला जी। चोविह संघ समण गुण थुणतां,थास्यो लील भूवाला जीते। भावार्थ-मुनियों के गुणों की विशाल माला के सदृश सरस ढाल को गाओ । हे चतुर्विधसंघ ! तुम मुनियों के गुणों को स्तवना करो जिससे आत्म सम्पति के भोक्ता-अधिपति बनोगे। कलश-इम द्रव्य भावे सुमति सुमता गुप्ति गुप्ता मुनिवरा । निर्मोह निर्मल शुद्ध चिद्धन तत्व साधन सत्यरा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय देवचन्द अरिहा आण विचर्यो विस्तरीजस संपदा । नीग्रंथ वंदन स्तवन करतां परममंगल सुख सदा ।। भावार्थ--इस प्रकार द्रव्य भाव से समिति गुप्ति से युक्त मुनिराज निर्मोही निर्मल और विशुद्ध आत्मतत्त्व की साधना में तत्पर रहते हैं देवों में चन्द्रके सदृश अर्हन्त भगवान की आज्ञा में उनके विचरने से यश सम्पदा का विस्तार हुआ निग्रन्थों को बंदना-स्तवना करने से सर्वदा परम मंगल सुख प्राप्त होगा। इति श्री पण्डित देवचन्द्र जी विरचित "अप्ट प्रवचन माता" की सज्झाय मूल और भावार्थ सहित सम्पूर्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट अष्ट प्रवचन माता सज्झाय बालावबोध-टबा रूपी गुजराती अर्थ दोहा १... पुण्य करणी रूप कल्पवृक्षनी घटा जिहां प्रगटी छें एहवी उत्तरकुरूक्षेत्र नी भूर्मिका रूप, वरते सुन्दर पृथ्वी; तेनें विषे अध्यातम रस रूप चन्द्रकला नां किरणरूप जिनवाणी ने न छू । २...सार ते रूड़ा श्रमण जे मुनि तेना गुण तेनी भावना ना अवदात ते कारण एवी प्रवचन माता, ने देशीइ गाइस्यु' । ३... जिम माता पुत्र ने शोभनकारी तिम ए८ प्रवचन माताइ मुनि शोभे चारित्र तँ गुण वधारे; मुक्ति सुख आपे एहवी प्रवचन माता छे । ४ - भाव थी अयोगी ते सिद्धता करण रूचि मुनि गुप्ति धरें, जो गुप्ति ई रही सकें नहीं तो समिति विचरे । ५ – निश्चय थी एक संवर मई गुप्ती कही छई अडने संवर ते निर्जरा रूप छे ते पण व्यवहार थी समिति थी हुई । ६ - द्रव्ये द्रव्य थी चारित्र भावे भाव थी चारित्र द्रव्य यो क्रिया अने भाव थी ज्ञान दृष्टि, ए रीतें मुनि मुक्ति संपदा पायें । ७—आत्म गुण ना प्राग्भाव थी, साधक नो जे परिणाम ते सम कही छै मुक्ति थानक पार्मे तारें साध्यनी सिद्धि थाइ । ८- निश्र्चे चारित्ररूचि थई, समिति गुप्तिवंत साधु परम् अहिंसक भावथी निरूपाधि पणुपामें । ६ - मोक्ष पद पामवा; जे उजमाल थया, मुनि ते कर्मने भेदे; नाम दयानंत जे मुनि ना गुण गाऊँ छु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १--इरिया समिति सज्झाय १ प्रथम महाव्रतनी भावना कहे छ, संवर ने कारण कही छे, समतारस गुण - घर। हे मुनि इर्या समिति संभारो ! जेथी आश्रव थाई, एहवी -काय योग नी चपलता दुष्ट छ, ते वारो। २...काय गुप्ति निश्चे थकी, ते व्यवहारे प्रथम समिति छ, आगम रीते चालवु ते इर्या समिति कहीइं। ३...ज्ञान ध्यान सझाय मां, मुनि बैठा छ थिरपणे तेनेस्य कारणे चपलाइ थाई, अनुभव ध्यान रस नुं सुख रूप मुनि ने राज्य छई। ____४ :मुनि उपासरा थी ४ कारणे बाहर निकले छ देहरे १ विहार २ गोचरी ३थंडीले ४ ५-उत्कृष्ट चारित्र करी संवरना धरनारा, केवलीई दीठा ते सर्व पदारथना जाण तेथी पवित्र समता रूचि उपजे मात्रै ते पदार्थज्ञान मुनि ने इष्ट छइ । ६--ज्ञान दिशाई भाव नी थिरताइ राग बघे, अनइ ज्ञान विना प्रमाद वधइ माटें वीतरागपणाने इच्छता थका मुनि आणंद मां विचरें। ७--आ शरीर संसार नु मूल छ, तेनी पुष्टि रूप आहार छे, यावत् अयोगी पणु न थाई त्यां सुधी अनादीकाल नो आहार छई। ८--प्रक्षेप आहारे निहार छ ए शरीर नो धर्म छ मात्रै धन्य छ अशरीरी सिद्धने जिहां निश्चल पणु छ ।। --पर जे आहार, तेनी परणतीई चपलाई करइ छ उनमत्तपणु मार्ट केवारे ए आहार छडास्यें, इम विचारी ने कारणे कहतां कारण मुनि गोचरी करे छ। १०--समतावंत दयालताई निष्पृह शरीरें निरागपणइ गृधता रहीतगोचरी करें । हस्ती चाल्ये चालता महाभाग्य ना धणी मुनि विचरे छई। . ११-परम आनंद रस अनुभवता, स्वाभाविक गुणे रमता, देव मां चंद्र तुल्य ए मुनि बंदतां भवसमुद्र नो पार पामीइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-भाषा समिति स्वाध्याय १---साधु जी बीजी समिती घरो, निर्दोष वचन नो प्रकाश निश्चय थी गुप्ति नो प्रकाश, व्यवहार मार्ग नो विलास ते भाषा समिति कहाइ । २---सत्य वचन नु' मूल ए भाषा ते बीजा महाब्रत नी भावना छई जे थकी भाव अहिंसक पणु वधे सर्व थी संवरपणा ने अनुकूल ए भाषा छ । ३---मौनधारी मुनि छे ते आश्रव नु घर एह, वचन बोले नहीं, जेहथी ज्ञान : ध्यान नी आचरणा नु साध थाई तेहवो उपदेश दीइ। ४--जे भाषा पर्याप्ति नो उदय थयो तेथी वचने करी श्रुत ने अनुसार सज्झाय करें तेथी अर्थरूप बोध नो प्रागभाव प्रगटें तेणे करी जगत ने उपगार करे छई। ५-मुनि आत्मवीर्य थी परनु ग्रहण अने त्याग ते न करें पर मां न पैसे, ते भणी वचन गुप्त रहें ए मुनि नो निश्चय मार्ग छई। ६-जे आश्रव थानक नो योग हतो ते निर्जरा रूप को लोह थी जे कंचन थाई तिम ज्ञान रूप साधन साधतां मुनि सर्व निर्जरा रूप करें। - ७-पोताने अने परने हितमा: वाचनादिक ५ प्रकार सज्झाय करें ते सारू, आहार अने वस्त्र पात्र औषध करे ते सर्व अपवाद पर्दै छइ । ८-जिन गुण नी स्तवना अने आत्म तत्व नें देखवा भाषा नो रोध करी उहरग थी भाषा गुप्ति धरइ अर्ने भाषा समितिइ देसना दीइ ते भव्य ने प्रतिबोधव अर्ने आत्मिक ज्ञान करवा ते वाचना सझाय कहीइ । ६-७नय, अनेक गमा, ७ भंगी ४ निक्षेपा, ते स्याद्वाद मिलीई आत्महित, प्रगटें एवी श्रुत वाणी, सोल बोलें सहीत १० प्रकारे सत्य वलि ४ गुणे मलती ते आक्षेपणी प्रमुख ४ गुण, ए अनुयोगद्वार सूों का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणा समिति सज्झाय १० - प्रथम सूत्रानुयोग, बीजो अर्थानुयोग ते नियुक्ति सहीत हुई ए व्यवहार भाष्यें यें करी भाव्यो छ, इम ज्ञानी वचन बोले छ । ११ - ज्ञानरूप समता समुद्र भर्या छ संवरपणु पाम्या, दया ना भंडार, तत्व पाम्या ते आणंदरस चाखता चरण गुण धरता मुनि वंदीइ । १२ - मोहनों उदय छें पण अमोही जेहका छौं, निर्मल पोतानु साध्य तेनी लय मां लीन, वली ज्ञान रूप अमृत रसे पुष्ट एहवा मुनि ने देवचंदजी वंदे छ अथवा इंद्र वंदे छइ । ६७ ३ - एषणा समिती सज्झाय १ - हवें त्रीजी एषणा समिती पंच महाव्रत नुए मूल छ, अने निश्चय थी अनाहारी अने अपवादे अनाहारी छ ए एषणा समिति मुनि चित्त मां धरो । २ - चेतन नी चैतन्यता छ ते स्वसंगी छ पण परसंगी नथी माटें परने सनमुख न करें, एहवा आत्म रती मुनि छ । ३– एषणाई आहार लीइ ते अशनादिक ना पुद्गल काया गृहें छें एआत्मा नो धर्म नथी माहरो आत्मा जाणग हूँ कर्त्ता भोक्ता छें एहवो हुं एक माहरो पिण कायादिक नहीं ए तत्व । ४ - चलवीर्य पणे संधी मले ते अनभिसंधि पुद्गल आत्म शक्ति रोधे अनेअभाव ते शास्वत नहीं पण अभिसंधिवीर्य वाला ते ज्ञानानंदी मुनि ते पर भावरूप पुद्गल ग्रहे नहीं या नहीं | ५ - इम पर पुद्गल ना त्यागी संवरी मुनि पुगद्ल खंध न ग्रहे, माटें चारित्र साधवा सारू आहार लीइ छे । ६ - आत्म तत्व नी अनंतता ज्ञान विना जणाय नहीं ते आत्म तत्व प्रकट करवा सिद्धान्त भणवु ए उपाय छे ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ एषणा समिती सज्झाय ७-शान देह थी आ शरीर छे ते आहार थी बलवंत रहें, साध्य जे मुक्ति पद ते अधुरे कारणे मुनि आहार तजे नहीं। -देह अनुयाई वीर्य तैनो कर्ता आहार तेनो संयोग ते लेवो, ते वृद्धना हाथ मां लाकड़ी रूप जाणी ने आहारादिक भोग मां लावें। -ज्यां सुधी क्रिया ज्ञान साधकता मां पीड़ा न उपजें त्यां सूधी आहार लीइं नहीं, अने क्षुधा उदयें बाधकपणु थाइ ते परणती टालवा सारू मुनि आहार करें। १०-द्रव्य ना के० आहार ना ४७ दोष तजी ने नीरागपणे जोइ विचारी ने मूर्छा विना भमरा परें आहार ली। ११-तत्व रुचि; तत्व नुंघर, तत्व रसिया मुनि वेदनी ना उदये आहार लीई पण ते ज्ञानी मुनी कष्ट वैतरु जांण - १२-कदाचित् आहार न मलें तो पण घणी निर्जरा माने, कदापि आहार पामें तो ते मांहें व्यापें नहीं, माचे नहीं एहवा मोटा मुनि। १३-इम अणाहारी पदनी साधना करता समसारूप अमृत नो कंद पाप ने भेदता उपशम योगी एहवा मुनी तेहनें इंद्र वंदे छे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ - आयाणभंड निक्षेपना समिति की सझाय १ - चौथी समिती चारगति टालनारी प्रभुइ कही, परमदयाल मुनि ग्रही, ज्ञान ठकुराईइ चाखी छई । २ - एवीए समिति छे ते हे सहज संवेगी मुनि ! तमो ए मांहे सदा रेहज्यों, आत्म साधन माटें ए संवर नुं आराधन छें, भव समुद्र तरवा नावा छें । ३ – जे आत्म तत्व ना वंछक हस्यें, ते सिद्धान्त ने साखी करीने सर्व परीग्नह संग ने दूर करीनें ध्यान नी वांछा वाला हज्यो । ४ - पांच आश्रव त्याग ए संवर पांच नी ए भावना छे, निरुपाधी पणु, अप्रमादी पणु परीग्रह त्याग असंगीपणे रहेव ं ए व्यवहार छे । ५ —— जे परभाव रूप पुद्गल रूप १४ उपगरण छे ते मुनी स्यामा राखे छे शरीर नो मोह नथी, कोई कालें लोभ नथी रत्नत्रयी संपदा वाला मुनि छें । ६- तेनो उत्तर लखे छे आत्म अहिंसक करवा सारू द्रव्य थी जीवदया पालवासारू १४ उपगरण धरे छइ संयम योग ने समाधि राखवा सारू ७ -मोक्ष साधन नुं मूल ज्ञान छें, तेहनुं हेतु सज्झाय ध्यान छे मा एषणा नां १० दोष जोइ ने जतनाई पात्र मां वोहरी ने सज्झाय ध्यान करवा आहार करई । ८ -- बालक योवनावत पुरुष स्त्रीयो मुनि ने नग़न देखी दुगंछा करें मांटे मुनि चोलपट राखें अने शुद्ध धर्म उपदेशें । ९ - डांस मसा सीत उष्ण ए परीसहें ध्यान मां समाधिना रहें माटें मुर्छा - रहित पण कपड़ा कॉबली धरे निराबाध पणें । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयाणमंड निक्षेपना समिति की सज्झाय १०-जलनो लेप अलेप तथा उंडपणु नदीनु जोवा सारू मुनि दंड राखें छइ दशवं कलिक भगवती सूत्र नी साक्षे डांडो मुनि राखें शरीर ओठंभा माटें । ११-लघु त्रस बेइन्द्रीयादीक जीव सचित्त रज प्रमुख ते जीवने संघटे दुख उपजे ते वारवा सारू देखी पूजी ने मुनि वसति प्रमुख बावरें ए मुनि नो प्रथम वट्ट छ। १२--पुद्गल खंध तृण वस्त्रादिक नुं लेव मुकवू ते द्रव्य ने विर्षे जयणाईए द्रव्य थी अनें भाव थी आत्मा नी नव नवी परणते समिती नो प्रकाशे ग्रहणपणु छ । १३-ते मांहें जे बाधकता थाई ते पण द्वेष रहीत तजें साधक पण राग रहीत ग्रहें पूर्व गुण ना रक्षक पुष्टि पणे मुक्ति पद नीपजे ते काम करें। १४–संयम श्रेण चढता थका, कर्म कलंक ने हरता थका एकत्वपर्ण समताने धरता थका निश्चये तत्वरमणपणु पांमें । १५-विश्व उपगारी भव्य ना तारू लायक पूर्णानंदी एहवा मुनिना चरण कमल इंद्र सरीखा व दे। परिष्ठापनिका समिति की सज्झाय १-पांचमी समिति रूड़ी पारिष्ठापनिका नामें उत्कृष्टो अहिंसक धर्म क्षारणी सुकमाल दया परिणाम रूप छे २-हे मुनी सदेव ए सुखदायक सेवज्यो, संयम थिरता भावे ए समिती थी शोभे उज्जल संवर प्रगटें ३-शरीरने रागें चपलताई वधे, दुष्ट कषाय प्रगटें मार्ट शरीर नो राग तजी घ्यान मां रमइ ज्ञान चारित्र ने पसाई । ४-जिहां शरीर सिंहां मेल थाय ने मेल ठालको पण छ काय ना जीव नी जतनाई दुर्गछकता टालवी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिष्ठापनिका समिती की सज्झाय ५-अजतनाइ संयम ने बाधकपणु थाइ', आत्म गुणनी विराधना थाई, प्रभु आणा विराधक थाइ मात्रै उपधि आहार मुनि परठों, ते आगल 'लाभालाभ जोइनें । ६-आहार बध्यो होइ तारें मुनि परठों अने पोताने कोठे अप्रमादी पणे शरीर ने अरागें आहार मूर्छाबिना वावरवो ते पण धीर मुनि ने अपवाद ते व्यवहारे परिठावण जाणवू। ____७-वलि द्रव्य थी कोई देखें नहीं इत्यादि दूषण तजी ने राग द्वेष वरजीर्ने विधिसहित परठों, स्या माटे कोई देखे तो लघुता पणु थाई। ८-कल्पातीत यथालंदी कल्प वाला मुनी वलि जिनकल्पी, तेहने तो आहारादिक परठववा पणु नथी एक नीहार परठवणा छइ'; ते पण अलप छ। -रात्रि समें मूत्रादिक परठवें ते मांडला मांहे विधिसहित, थविरकल्पी नो ए व्यवहार छ', ग्लान मंदवाडीया ने कामे पण ए रीत छ १०-ए द्रव्य परिठावणा कही हवे भावे परठवे ते जे परणाम ने बाधक थाइ ते मादकता बिना द्वष रहित सर्व विभाव दशा ने परठवें । ११-आत्म परिणति तत्वमई करें विभाव तर्जे द्रव्य थी समीति पण भावसारू धरें, ए मुनि नो स्वभाव छ । १२-पांच समिति समिता, परिणाम थी क्षमा ना कोश ते भण्डार छ रोस पण नथी, भावनाई पवित्र छ, संयम साधना सकल गुण नी पुष्टी करें । १३-साध्य ना रसिया आत्मतत्वे तन्मयो छ, निःकपट पणे उछरंग धरता; योग १ क्रिया २ फल ३ भाव ४ ए ४ थी ठगाई ही ए अवंचकता; शुद्ध अनुभव सुखदाइक छ जेहने । १४--प्रभु आणा युक्त ज्ञानी दमी निश्चय थी इंद्री निग्रहें युक्त देवचन्द्र जी कहैं छ एहवा निग्नथ ते तत्व माहरा गुरू छ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोगुप्ति की सज्झाय १-मुनि मन नें वस्य करो, आश्रव नुं घर ते मन छे, ममत्व नो रस ते मन छे, मन थिर करे ते यतो कहीइं। २–वक्र धोड़ा सरिखं मन छ; मोहराजा नो मत्री ते मन छ, आरत रौद्र ए २ जें खेत्र मन छ हे ज्ञाननिधान मुंनी तूं रोकजे । ___ ३–ए साधुनें प्रथम गुप्ति छई, धर्म शुल्क ए २ ध्यान नो कंद ए गुप्ति, वस्तु धर्म चिंतन मां रम्या जे मुंनी ते पूर्णानन्द पणुं ए थकी साधे ।। ४–योग ३ पुदगल मां भेलवे नवां कर्म नई संचे ए रीत योग मां वरतें चपल योगें ए आत्मिक धर्म नहीं । ५-योग चपलता परसंगी पणु ए साधन पक्षे नहीं माटें योग ३ चारित्र ने सहकारी पणे वरतावै निपुण मुनी। ६-विकल्प सहित साधन ध्यानवाला ने गमे नहीं ते माटे निरविकल्प अनुभव रस साधे ते आत्मानन्दी थाई। ७-जे व्यवहारथी रत्नत्रयी साधतां भेद पमाड़े क्लेश करावें ते साधन मेलु जाणवू, मन-वचन काय ए ३ गुणे उत्कृष्टवीर्यनी एकताइं जे साधे ते निर्मल आत्मानो आचार। ८-उजल ध्यान श्रुत आलम्बन ए पण साधन नो दाव छ वस्तुधर्म ते आत्म धर्म मां उछरंग पणुं मात्रै गुणी अने गुण एक सभागे छ।। ___-परनी साहाज्ये गुणे वरतं ते आत्म धर्म न कहीई । साध्य मां रमी छ चेतना जेहनी एहवा साधु ते चित्त मां परनुं सोहाज्य पणु किम ग्रहें । -१०-आत्म रूची आत्मा मां लय पाम्याँ स्याद्वाद शीलीई अनन्त तत्व ध्यातां थका ज्ञानी मुनी तत्वनी रमणता मां उपशम्या छ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोगुप्ति की सज्झाय ११-अपवाद सेवन नी रुची कदापि मुनि न करें, मुक्ति ना रसिया मुनी, शक्ति अणगोपवी ने मोक्ष ना कारण सेवई कर्म ना प्रचार ने निंदता थका। १२-इंम करतां पोतानी आतमता शुद्ध पणे सिद्ध करें, पूर्णानंद नी ठकुराई पामें देव मां चंद्र ते कैवल्य पढ़ साधता ते मुनी नई नमीइ । ७--वचन गुप्ति की सज्झाय १-वचन गुप्ति शुद्ध धरो, वचन ते कर्म रूप छे कर्म में उदय आश्रित जे चेतना प्रवर्ते ते निश्चय कष्ट रूप थाई। २--अने आत्मा तो वचने गम्य नथी, सिद्ध स्वरूपी छ माटें वचन थी अतीत छे अस्ति स्वभावे सत्तापण आत्मा नु छई माटें भाषक भाव ते वचन तेथी आत्मा अतीत छ । ३- अनुभव रस चाखतां आत्म ध्यान करतां बोलते बाधक भाव छ मार्ट मुनी सर्वथा मौन पणे रहें ते निश्चे वचनगुप्ति । ४. आश्रव ना वचन पलटावा सारू अनादि नो ढाल छे ते वारवा सारू मुनि सज्झाय ध्यान करें ते तो वचन समिति, अने सर्वथा न बोलवु ते वचन गुप्ति एहथी महारस उपजे छ। ५-भाषा पुद्गल नी वर्गणा न लेवं ते सहजें उपाधि पणु छ ते आत्मवीर्य सखाई करतां स्ये कारणे वचन प्रेरें । ६-ज्यां सूधी वीर्य चेतना आत्म गुण ने पांमें त्यां सूधी संवर निर्जरा छे अने आश्रव ते पर आयत पणे छ। ७-इम जाणी ध्याने थिर मुनी चपल वचन योग नो पलिमथ न करें, मोक्ष पद साधतां निग्नंथ मुनी आणा अरथी छ । ८--शुद्ध परमात्मा ने साध्य ते मोक्ष तेनु साधन ते उछर्ग के निश्चय थो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन गुप्ति की सज्झाय मौनपणुं छे एटले वचन गुप्ति बार भेदें तप छे पण ते मध्ये व्युछर्ग के० काउसग तप ते श्रेष्ट छे स्या माटे जे वचनगुप्ति काउसग मां थे। _____E-चोथे गुणठाणे अयोगी भाव साध्य कर्यो स्यामाटे जे समकित थयु एटले अयोगी पणु नीयमा थस्य कालांतर वचन गुप्ति रूप थिरभाव ते अयोगी पणा नु कारण छ। १०-गुप्ति रुची मुनी गुप्तीइ रम्या पांच समीति छे ते गुप्ति नु कारण छे ए रीतें करता थका थिरता ने वंछता थका तत्व पामें गुण नो संचय करें। ११-मुनि व्यवहार से पण निश्चय नय नी दृष्टि चुके नहीं इस्या मुनि ने निरंतर घणे भावें इन्द्र वदे छ। काया गुप्ति की सज्झाय __ हे मुनि श्रीजी गुप्ति संभारो ! जेहथी घणो आणंद उपजें मोहनी टलें घाती ४ गले, अमंद के० मोटु केवलज्ञान उपजइ । २-घणी क्रिया कष्ट ते देवलोकें जाय शुभ क्रियाई अने अशुभ क्रिया कष्ट अंते नरक गति पामे मात्रै शुभ अशुभ किया बे भव नु बीज छ । ते सारू काय नो व्यापार सर्व तजवो, स्यामाटे ? जे काय योग चंचल भाव छ ते आश्रवनु मूल छइ, एक आत्मा अचल अविकारी छ । ३-पांच इंद्रीयोना २३ विषय तेनो ए धारक छे वलि काय योग ते नुं गंध हेतु दृढ छे काय योगे नवां कर्म में हवाय ते मार्ट चपल देहछे ते थिर चेतन ___४-परसंगी अने आल्म वीर्य चलें जेहथी ते काययोग कहिइ अर्ने साताई परम अयोगी छे निर्मल थिर उपयोगी छ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काया गुप्ति की सज्झाय ७४ ५-~-जिहां लगे चल तिहा लगें कर्म बंध इम भगवती सूत्रों कह्यो ते सारू माहण जे मुनी ते आत्म तत्व में से उजल ध्यान ने संगे रमें छ । ६-आत्म धर्म नो वीर्य तेज सखाइ छे एवीयं अचल छे सेहज नु छ अप्रयासो छे त परभाव ने सखाई किम थाइ ए दीपाइ मुनि गुणना मंदिर थाई। ७-आत्म वीर्य थी गुण प्रगटें ते कहे छ खति मुत्ति ऋजुता अकिंचनी शौच ब्रह्म इत्यादि गुण उपजे मात्रै विषम परिसह नी फोज हटाववा ए वीर्य परम सौंडीर ते हस्ति वा सिंह सरिखु छ। ___--कर्म पडल समुह न टालवा रसिया आत्म ऋद्धि समृद्धिई भर्या देव मां चन्द्र तुल्य प्रभु आणा पालता मोटे गुणे वध्या मुनि ने गंदो । . शिक्षा रूप सज्झाय १--धर्म धुरंधर मुनि ते कहिइ जे ज्ञान चारित्र भर्या अने वलि इंद्रीना भोग तजी आत्म सुख ने भज्या भव नंधिखाणा थी उदवेग पाम्या। २--द्रव्य थी भाव थी शुद्ध श्रद्धा धरी शंकादि दोष तजी ने कारण योगें कार्य निपजे एहवां साधन आदरी नई साध्य पर्दे संतोष धरी। ३--गुण पर्याइ वस्तु ने परखता थका ग्रहण १ आसेवन २ ए बे शिक्षा ना मंडार छ आत्मा नो परणति आत्म शक्ति स्वरूों परणमोझे पण तेनो विवहार करता थका विचरें। ४-लोक संज्ञारूप दुर्गछा वारता संयम वृद्धी करता, मूलगुण उत्तरगुण मां नजर राखता, आत्मशुद्धि धरता । ५-पोते गीतारथ छे अथवा गीतारथ नी नीष्टाई विचरता योग ३ वश्य करीने नव-नवा आगम भणता थका शुद्ध उपयोगे रह ६-द्रव्य भाव आश्रव रूप मेल टालता शुद्ध संयम पालता, रखरी मुनि नी क्रिया करता थका, कर्म विकार ने गालता । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा रूप सज्झाय ७-सामायक आदे ५ चारित्र नी गुण श्रेणिइ चढ़ते भावे रमता त्रण्य लोक थी न्यारा, त्रण्य लोक मां पूजनीक जेहना चरणकमल छ । ८--पोते अधिक गुणी छ, पोता सरिरवा गुणी जे मुनि ते सार्थे मलता छ परमसमाधि ना निधान भवसमुद्व ना तारण पडें तरण जिहाज तुल्य छ। ६--समकितनंत छ संयम गुण ना ईच्छक ते संयम धरवा असमर्थ एहवा, त्रीजा संवेगपक्षी मुनि पक्ष भावे शोभता छ शुद्ध स्वरूपक छ। १०--पोतानी प्रशंस्याइ माचे नहीं, एक मुनि गुणे राचे के पणते संवेग पक्षी थका अप्रमत्त मुनि गीतार्थ नइ सिद्धान्त ना रहस्य, पूछवा सारू सेवा करइ छइ । ११---आगम नी सद्दहणा अनुमोदना सहित, गुणकारी संयमनी चालि शुद्ध व्यवहार थी साचवें आगल लाभ धारी ने। १२...एहवा गीतारथ मुनी ते दुक्करकार जे महातपस्वी तथा अभिन्नही तथा सियलगंता ते थकी अधिका कह्या छ वृहत्कल्पें तथा व्यवहार सूत्रे उपदेश माला तथा भगवती सूत्रे गीतार्थ ना अधिकार । . १३...भाव थी संयम थानक फरस्या बिना चारित्र धर्म न कहीइ, जे प्रवचन नरे रहस्य जाणे ते जूठ वचन बोले नहीं। १४...लोक मां जस शोभा सारू पोता नो मत थापवा ने; लोक रीझवण सारू ज्ञान भणे क्रिया करें उन विहारे ते मुनि न कहिइ ! १५-एकान्ते बाह्य थी दया नो उपदेश दये बहुश्रुतपणु न होइ, अलप ज्ञाने करी बगध्याने मूर्ख लोक ने ठगता फ़रे छ । ते घणो संसार भमस्ये दीन ते रांक पणु पामस्ये। १६...अध्यात्म नी परिणतिइ क्रिया कांड करस्य देश काल जोइनें उचित आधार पालें, जिन आज्ञा विराधे नहीं तेहनो अवतार धन्य छ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय १७--द्रव्य क्रिया तो निमित्त कारण के धर्म मां लीन पणे रहे• ते भावक्रिया छ आत्मा ने जे-जे अशे निरूपाधि पणुं थाइ ते अपूर्वलाभ माने। १८---द्वेषनी परणति ने निन्दे शुद्ध परणति रूप धर्म प्ररूपइ, अष्टांग योग अन्य तेहना परमार्थ प्रकाश करें ते मुनि कर्म ने टाले। १९...किरिया थोड़ी करे पण ज्ञानवाला मु नि लोक ने उपगार करे तेथी मोक्ष साधइ एहवा देव मां चन्द्र तुल्य गीतार्थ मुनि ना समूह ने वन्दतां जिन नाम कर्म बांधइ कृष्णनी परइ ।। * कलश* १...ते प्राणी संसार तर्या, जे जैन मत अङ्गीकार कर्या, जे सुविहित मुनि ज्ञान अमृत रसना समुद्र थई ने किरिया करें ते संसार तर्या । २–ब्रह्मचर्य रूप बख्तर थकी जे पाखर्या छ । ... ३...आत्मानन्द के ज्ञान आणंदे भर्या के पांच आश्रवना द्वार घणाले ते समस्त ढांक्या के प्रधान संवर भावे संवर्या के एहवा । ४...ज्ञान धर्म अने तप धर्म पणे ध्यान मां वस्या एहवा । ५...विनय गुण रत्न ना समुद्र तत्शिष्य श्री देवचन्द्र जी पण्डित बहुश्रुत पणुं पांमी ने साधुना गुण गाया ते थकी कर्म शत्रु ने शिथिल कर्या । ६...मेरु तुल्य रूड़ा जिनालये शोभित नगर मांहे प्रधान, गुण स्तुती। ७...हे चतुर्विध संघ मुनि गुण नी तुमे स्तवना करज्यो, जे थकी लीलागंत भरत सरीखा राजा थास्यो। ___---निर्मोही पणे शुद्ध ज्ञान तत्त्व साधना मां तत्पर इन्द्र सरिखा तीर्थकर नी आणाइ विचर्या ते थकी जस सम्पदा विस्तरी के जेहनी एहवा म नि ने गंदन स्तवना करतां परम मंगल ते मोक्ष सुख जे सदाय सुख ते प्रगटइ । इति श्री अष्ट प्रवचन माता स्वाध्याय ... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन माता उत्तराध्ययन सुत्रम् का चौबीसवाँ अध्याय ( स्थानांग सूत्र में ५ समिति ३ गुप्ति का उल्लेख है। समवायांग में इनका संक्षिप्त विवरण भी है भगवती सूत्र के श० २५ उ० ६ में प्रवचनमाता का उलेख है पर उत्तराध्ययन में तो स्वतंत्र अध्ययन ही है अतः उसीका अनुवाद दिया जाता है।) समिति और गुप्तिरूप आठ प्रवचन माताएँ हैं जैसे कि पाँच समितियां और तीन गुप्तियाँ॥१॥ ___ईर्यासमिति, भाषासमिनि, एषणा समिति, आदानसमिति और उच्चारसमिति, तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और आठवीं कायगुप्ति हैं। यही आठ प्रवचन माताएं हैं ॥२॥ येआठ समितियाँ संक्षेप से वर्णन की गई हैं । जिन भाषित द्वादशांग रूप प्रवचन इन्हीं के अन्दर समाया हुया है ॥३॥ आलम्वन, काल, मार्ग और यतना इन चार कारणों की परिशुद्धि से संयतसाधुगति को प्राप्त कर या गमन करे ॥४॥ - ईर्या के उक्त कारणों में से आलंबन ज्ञानदर्शन और चारित्र हैं। काल, दिवस हैं; उत्पथव त्याग, मार्ग है ॥५॥ ..द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से यतना चार प्रकार की है । मैं तुम से कहता हूँ, तुम सुनो ॥६॥ __ द्रव्य, से आँखों से देख कर चले। क्षेत्र से चार हाथ प्रमाण देखे। काल से- जब तक चलता रहे। · भाव से उपयोग पूर्वक गमन करे ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सुत्रम् का चौबीसवाँ अधयाय ७९ इन्द्रियों के विषयों और पाँच प्रकार के स्वाध्याय का परित्याग करके तन्मय होकर ईर्या को सम्मुख रखता हुआ उपयोग पूर्वक गमन करें ॥८॥ क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्य, भय, मुखरता और विकथा में उपयुक्तता होनी चाहिए ॥ ६ ॥ बुद्धिमान् संयत पुरुष उक्त आठ स्थानों को परित्याग कर, यथा समय परिमित और असावद्य भाषा को बोले ॥१०॥ गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगेषणा तथा आहार, उपधि और शय्या इन तीनों की शुद्धि करे ॥११॥ संयम शील, यति प्रथम एषणा में उगम और उत्पादन आदि दोषों को शुद्धि करे। दूसरी एषणा में-शंकितादि दोषों की शुद्धि करे। तीसरी एषणा में पिंडशम्या, वस्त्र और पात्र आदि को शुद्धि कर ॥१२॥ ओधोपधि और औपग्न हिकोपधि तथा दो प्रकार का उपकरण-इनका ग्रहण और निक्षेप करता हुआ वह साधु वक्ष्यमाण विधि का अनुसरण करे अर्थात् इनका ग्रहण और निक्षेप विधिपूर्वक करे ॥१३॥ संयमी साधु आंखों से देखकर दोनों प्रकार की उपाधि का प्रमार्जन कर तथा उसके ग्रहण और निक्षप में सदा समिति वाला होवे ॥१४॥ मल-विष्टा, मूत्र, मुख का मल, नासिका का मल, शरीर का मल, आहार उपधि शरीर और भी इसो प्रकार के फेंकने योग्य पदार्थ, इन सब को विधि यतना से फेके ॥१५॥ १ आता भी नहीं और देखता भी नहीं । २ आता नहीं परन्तु देखता है। ३ आता है परन्तु देखता नहीं। ४ आता भी है और देखता भी है ॥ १६ ॥ अनापात जहाँ लोग न आते हों । असलोक लोगः न देखते हों, पर जीयों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अष्ट प्रगचन माता सज्झाय का उपघात करनेवाला न हो। सम अर्थात विषम न हो ओर तृष्णादिसे आच्छादित न हो तथा थोड़े काल का अचित्त हुआ हो, ऐसे स्थान में उच्चार आदि त्याज्यः पदार्थों को व्युत्सर्जन करे, यह अग्निम गाथा के साथ अन्वय करके अर्थ करना ॥ १७ ॥ जो स्थान विस्तृत हो, बहुत नीचे तक अचित्त हो, गामादि के अति समीप न हो, मूषक आदि के बिलों से रहित हो तथा त्रस प्राणी और बीज आदि से वर्जित हो, ऐसे स्थान में उच्चार आदि का त्याग करे ॥ १८ ॥ ये पाँच समितियाँ संक्षेप से वर्णन की गयी हैं । इस के अनन्तर तीनों गुप्तियों का स्वरूप अनुक्रम से वर्णन करता हूं॥ १६ ॥ ___ सत्त्या, असत्या, उसी प्रकार सत्या मृषा और चतुर्थी असत्यामृषा ऐसे चार प्रकार की मनोगुप्ति कहो है ॥ २० ॥ ... संयम शील म नि संरम्भ, समारम्भ और आरम्भमें प्रवृत्त मन को निवृत्त करेउस की प्रवृत्ति को रोके ॥ २१ ॥ सत्यवाग् गुप्ति, मृषावागुप्ति, तद्वत सत्यामृषावाग्गु प्ति और चौथी असत्यामृषावागु प्ति, इस प्रकार वचन गुप्ति चार प्रकारसे कही गयी है ॥ २२ ॥ संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत हुए वचन को संयमशील साधु निवृत करे ॥२३॥ ___ स्थान में, बेठने में तथा शयन करने में, लंघन और प्रलंघन में एवं इन्द्रियों को शब्दादि विषयों के साथ जोड़ने में यतना रखनी-विवेक रखना चाहिए ॥ २४॥ प्रयत्नशील यति सरम्भ, समारम्भ, और आरम्भ में प्रबृत हुई काया-शरीर को निबुत करे अर्थात आरम्भ समारम्भ आदि में प्रबृत न होने दे ॥ २५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानार्णव में अष्ट प्रवचनमाता ये पाँचों समितियाँ चारित्र को प्रकृति के लिए कही गयी है और तीनों गुप्तियाँ शुभ और अशुभ सर्व प्रकार के अर्थों से निवृति के लिए कथन की गयी हैं ॥२६॥ जो मुनि इन प्रवचन माताओं का सम्यग् भाव से आचरण करता है, वह पण्डित सर्व संसार चक्र से शीघ्र ही छूट जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ ॥२७॥ समाप्त दि० आचार्य शुभचन्द्र रचित ज्ञानार्णव में अष्ट प्रवचनमाता [श्वेताम्बर साहित्य के अतिरिक्त दि० साहित्य में भी अष्ट प्रवचन माता का विवरण मिलता है, कुन्दकुद के नियमसारादि ग्रन्थों में संक्षिप्त विवेचन है । ज्ञानार्णव में कुछ विस्तृत विवेचना होने से उसके संबन्धित श्लोकों का अनुवाद दिया जा रहा है। ] . संयम सहित है आत्मा जिनका ऐसे सत्पुरुषों ने ईर्ष्या; भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और उत्सर्ग ये हैं नाम जिनके ऐसी पांच समितियें कही हैं । मन, वचन काय से उत्पन्न अनेक पापसहित प्रवृतियों का प्रतिषेध करने वाला . प्रवर्तन, अथवा तीनों योग ( मन, वचन, काया की क्रिया ) का रोकना, ये तीन, गुप्तिये कही गई हैं। ___जो मुनि प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्रों का तथा जिन प्रतिमाओं को वंदने के लिए तथा गुरु, आचार्य वा जो तप से बड़े हों, उनकी सेवा करने के लिए गमन करता हो उसके, तथा दिन में सूर्य की किरणों से स्पष्ट दीखनेवाले, बहुत लोग जिसमें गमन करते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानार्णव में अष्ट प्रवचनमाता हों ऐसे मार्ग में दया से आर्द्र चित्त होकर जीवों की रक्षा करता हुआ धीरे-धीरे गमन करे, उस मुनि के तथा चलने से पहिले ही जिसने युग ( जूड़े ) परिमाण ( चार हाथ ) मार्ग को भले प्रकार देख लिया हो और प्रमादरहित हो ऐसे मुनि के इर्यासमिति कही गई है । धूर्त ( मायावी ) कामी, मांसभक्षी, चौर, नास्तिकमतो, चार्वाकादि से व्यवहार में लाई हुई भाषा तथा संदेह उपजानेवाली, व पाप संयुक्त हो ऐसी भाषा बुद्धिमानों को त्यागनी चाहिये । तथा वचनों के दशदोष रहित सूत्रानुसार साधुपुरुषों के मान्य हो ऐसी भाषा को कहने वाले मुनि के उत्कृष्ट भाषासमिति होती है । ८२ कर्कश, परुष, कटु, निष्ठुर परकोपी, छेद्यांकुरा, मध्यकृशा; अतिमानिनी भयंकरी, और जीवों की हिंसा कराने वाली, ये दश दुर्भाषा हैं । इनको छोड़े तथा हितकारी, मर्यादासहित असंदिग्ध वचन बोले उसी मुनि के भाषासमिति होती है । जो उद्गमदोष १६, उत्पादन दोष १६, एषणादोष १०, धुआं, अंगार प्रमाण संयोजन ये ४ चार मिलाकर ४६ दोष रहित तथा मांसादिक १४ मलदोष और अन्तराय शंकादि से रहित, शुद्ध, काल में पर के द्वारा दिया हुआ, बिना उद्देशा हुआ और याचना रहित आहार करे उस मुनि के उत्तम एषणा समिति कही गई है । इन दोषादिकों का स्वरूप ( आचार वृति ) आदिक ग्रन्थों से जानना । जो मुनि शय्या, आसन; उपधान, शास्त्र और उपकरण आदि को पहिले भले --- प्रकार देखकर फिर उठावे अथवा रखे उसके तथा बड़े यत्न से ग्रहण करते हुए के साधु के अविकल ( पूर्ण ) आदान निक्षेपण समिति तथा पृथ्वी पर धरते हुए स्पष्टतया पलती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानार्णव में अष्ट प्रवचनमाता ८३ जीव रहित पृथ्वी पर मल, मूत्र, श्लेष्मादिक को बड़े यत्न से (प्रमादरहिततासे) क्षेपण करने वाले मुनि के उत्सर्ग समिति होती है । राग द्वेष से समस्त संकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को स्वाधीन करता है और समता भावों में स्थिर करता है तथा-सिद्धान्त के सूत्र की रचना में निरन्तर प्रेरणारूप करता है उस बुद्धिमान मुनि के सम्पूर्ण मनोगुप्ति होती हैं । भले प्रकार संवररूप ( वश ) करी है वचनों की प्रवृति जिसने ऐसे मुनि के तथा समस्यादि का त्याग कर मौनारूढ़ होने वाले महामुनि के वचनगुप्ति होती है । स्थिर किया है शरीर जिसने तथा परिषह आजाय तो भी अपने पर्यकासन से ही स्थिर रहै, किंतु डिगे नहीं उस मुनि के ही कायगुप्ति मानी गई है, अर्थात् कही गई है। ___ पांच समिति और तीन गुप्ति ये आठों संयमी पुरुषों की रक्षा करने वाली माता है तथा रत्नत्रय को विशुद्धता देने वाली हैं इन से रक्षा किया हुआ मुनियों का समूह दोषों से लिप्त नहीं होता । ( अष्टादश प्रकरण श्लोक ३ से १६ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ स्वरूपसमाधिनिष्ठ अप्रमत्तअध्यात्म योगी श्री लाभानन्द जी अपरनाम आनन्दघनजी विरचित पांच समिति---ढालो १ इर्या-समितिःदोहा- पंच महाव्रत आदरी, आतम करे विचार । अहो ! अहो ! हुँथयो प्रत्यक्ष, धन-धन मुझ अवतार ॥ १॥ __ ढाल-१ चितोडा राजा...ए देशी... विनति अवधारो रे, इरियाए चालो रे शक्ति संभालो रे, आत्म स्वभावनी रे, १ इरिया ते कहिये रे, सुमति सुभेट लहिये रे, (निज लक्ष गहिये रे, गमनागमन महि रे) २ सुमति जब भाली रे, तब लागी प्यारी रे, __ पुंठ तव वाली रे, कुमति संगथी रे. ३ द्रव्यथी पण सार रे, किलामणा लगार रे, __ रखे नवि ऊपजे रे, हवे परप्राण ने रे ४ मुनि मारग चालो रे, द्रव्य-भावसं म्हालो रे, __ आतम उगारो रे, भव-दव-चक्रथी रे ५ एम मुनिगुण पामी रे, परभावने वामी रे, कहे हवे स्वामी रे, आनन्दधन ते थयों रे ६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति-तालो २ भाषा-समितिःढाल २ राय कहे राणी प्रते, सुणो कामिनी......ए देशी बीजी समिति सांभलो, जयवन्ताजी ___ भाषा की इण नाम रे गुणवन्ताजी ! भाषे भाषण स्वरूप नुज०, रूपी पदारथ वाम रे गु० १ निज स्वरूप रमणे चड्या ज० नवि परनो परचार रे गु० भाषासमितिथी सुख थयुं ज०, ते जाणे मुनि सार रे गु० २ ज्ञानवन्त निज ज्ञानथी ज०, अनुभव भाषक थाय रे गु० भाषासमिति स्वभावथो ज०, स्व-पर विवेचन थाय रे गु० ३ हवे द्रव्यथी पण महामुनि ज०, सावध वचननो त्याग रे गु० सावध विरम्या जे मुनि ज०, ते कहिये महाभाग रे गु० ४ पर-भाषण दूरे करी ज०, निज स्वरूप ने भाष रे गु० आनन्दघन पद ते लहे ज०, आतम ऋद्धि उल्लास रे गु० ५ ३ एषणा-समिति; ___ ढाल ३ राग़-बंगलो राजा नहीं नमे......ए देशी त्रीजी समिति एषणा नाम, तिणे दीठो आनन्दघन स्वाम चेतन ! सांभलो. जब दीठो आनन्दघन वीर, सहज स्वभावे थयो छे धीर गयो आमलो- १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति-ढालो वीर थई अरि पुंठे धाय, अरि हतो ते नाठो जाय चे० वीररी सन्मुख कोई न थाय, रत्नत्रयसं मलवा जाय चे० २ अरिनुबल हवे नथी कांइ रेष, निज स्वभावमांम्हाल्यो विशेष चे० निरखण लागो निजघरमांय, तब विसामो लीधो त्यांय चे० ३ हवे परघरमां कदीय न जाऊं, पर ने सन्मुख कदीय न थाऊंचे० एम विचारी थयो घर राय, तव परपरिणति रोती जायचे. ४ मुनिवर करुणा-रस भण्डार, दोष रहित हवे ले छे आहार चे० द्रव्य थकी चाले छे एम, परपरिणति नो लीधो नेम चे ० ५ द्रव्य-भावसु जे मुनिराय, समिति स्वभाव मां चाल्या जाय चे० आनन्दधन प्रभु कहिए तेह, दुष्ट विभावने दीधो छेह चे० ६ ४ आदान-निक्षेपन--समितिः-- ढाल (४)जगत गुरु हीरजी--ए देशो चौथी समिति आदरो रे, आदान-निखेवणा नाम आदान ते जे आदर करे रे, निज स्वरूप ने तेमस्वरूप गुण धारजो रे, धारजो अक्षय अनन्त भविक ! दुख वारजो रे १ निखेवणा ते निवारवु रे, पर-वस्तु वली जह तेह थकी चित्त वालवरे, करवा धर्मसु नेह, स्व २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति-ढालो धर्म नेह जब जागियो रे, तब आनन्द जणाय प्रगट्यो स्वरूप विषे हवे रे, ध्याता ते ध्येय थाय, स्व० ३ अज्ञान व्याधि नसाडवा रे, ज्ञान- सुधारस जह आस्वादन हवे मुनि करे रे, तृप्ति न पामे तेह, स्व० ४ स्वरूपमा मुनिवरा रे, समितिसु धर स्नेह सुमति-स्वरूप प्रगटावीने रे, दीधो कुमतिनो छेह, स्व० ५ काल अनादि-अनन्त नो रे, हतो सलंगण भाव ते पर पुदगल थी हवे रे, विरक्त थयो स्वभाव, स्व० ६ द्रव्य भाव दोय भेदथी रे, मुनिवर समिति धार आनन्दधन पद साधशे रे, ते मुनि गुणभण्डार, स्व० ७ ५ पारिठावणिया समितिः-- बाल-५-रूडा राजवी, ए देशी पंचमी समिति मुनिवर ! आदरो रे, उन्मारगनो परिहार रे, सुधा साधु जी ! मुनि मारग रूडी परे साधजो रे, पर छोड़ी ने निज संभार रे. सुधा० १ पारिठावणिया नामे वली जे का रे, ते तो परिहरवो परभाव रे. सुधा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति- -ढालो आदर करवो निज स्वभावनो रे, ए तो अकल स्वरूप कहेवाय रे. सुधा० २ पर पुद्गल मुनि परठवे रे, विचार करी घट मांय रे, सुधा० लोक संज्ञा ने वली परिहरे रे, गतिचार पछी वोसराय रे सुधा० ३ अनादिनो संग वली जे हतो रे, तेनो हवे करे मुनि त्याग रे, सुधा० विकल्प-संकल्प ने टालवा रे, चली जेह थया उजमाल रे सुधा० ४ पर आकर्षण मुनि परठवे रे, ते जाणीने अनाचार रे, सुधा० आचार ने वली मुनि आदरे रे, कर्ता कार्यस्वरूपी थाय रे सुधा० ५ खट्-द्रव्य नुजाणपणु कारे, जेणे जाण्यो आप स्वभाव रे, सुधा० स्वभावनो कर्ता वली जे थयो रे, ते तो अनवगाही कहेवाय रे, सुधा०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति-ढालो सुमति सुहवे मुनि म्हालता रे, चालता समिति स्वभाव रे, सुधा० कुमति सुदृष्टि नवि जोड़ता रे, वली तोड़ता जेह विभाव रे सुधा० ७ उपसंहार पर परिणति कहे सुण साहिबा रे, तमे मुझने मूकी केम रे, सुधा० कहो मुनि कवण अपराध थी रे, मुझने छंछेडी एम रे. सुधा० ८ में म्हारो स्वभाव नवि छांड़ियो रे, नथी म्हारो कांइ विभाव रे, सुधा० पंचरंगी जे म्हारू स्वरूप छे रे, ते ने आदरू छु सदाकाल रे सुधा०६ वर्ण गंध रस फर्स छोड नहिं रे, तो श्यो अवगुण कहेवाय रे. सुधा० कदि अवर स्वभाव न आदरू रे, सडण पडण विधंस न छंडाय रे सुधा० १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति - ढालो सिद्ध जीवोथी अनन्त गुण का रे, म्हारा घरमा जे चेतनराय रे, सुधा० ते सघला म्हारे वश थई रह्या रे, तो तुमथी छोड़ी केम जवाय रे. सुधा० ११ तब मुनिवर कहे कुमति सुणो रे, तारू' स्वरूप जाण्युं दगाबाज रे, कुडी कुमति जी ! तारा स्वरूप मां जिम तु मगन छे रे, म्हारा स्वरूपे थयो हुं आज रे. कुडी० १२ मारू स्वरूप अनन्त में जाणियु रे, ते तो अचल अलख कहेवाय रे, कुडी ० सुमति थी स्वभाव - घरे रमु रे, तारा सामुं जोयु केम जाय रे, कुडी० १३ तारे- म्हारे हवे हवे नहिं बने रे, तुम तुम्हारे घरे हवे जाओ रे, कुडी ० आज लगी हु बालपणे हतो रे, हवे पंडित वीर्य प्रगटाय रे. कुडी ० १४ - सुमतिसु में आदर मांडियो रे, ए तो बहु गुणवन्ती कहेवाय रे, कुडी० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति-ढालो सुमतिना गुण प्रगटपणे रे, में तो लीधा उपयोग मांय रे. कुडी० १५ सांभल सुमतिना गुण कहुँ रे, जे अमल अखण्ड कहेवाय रे, कुडी० स्थिरतापणु समति मां घणु रे, तुझ मां तो अस्थिरता समाय रे कुडी० १६ तारा सुख तो में हवे जाणिया रे, छे किंपाक-फल सम हाल रे कुडी० तेथी ते विभाव कहेवाय छ रे, पुण्य-पाप नाटक नो ख्याल रे. कुडी० १७ ज्ञानो एहने सुख नवि कहे रे,, सुख जाण्यु में एक स्वभाव रे, कुडी० तारी पुंठे पड्या ते आंधला रे, भव कूपमां थया गरकाव रे, कुडी० १८ तारूँ स्वरूप में बहु जाणियुरे, जड़ संगे तुजड़ कहेवाय रे; कुडी० जड़पणु प्रगट में जाणियु २, तु तो पर पुद्गल माँ शमाय रे कुडी०१६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति-ढालो तेनो विवरो प्रगट सांभलो रे, आ संसार समुद्र अथाह रे, कुडी. तृष्णा-जल ते मध्ये घणु रे पण पीधे तृप्ति नव थाय रे. कुडी. २० ते समुद्रनो अधिष्ठायक वली रे, ते नामे मोह-भूपाल रे, कुडी० तेना मित्र प्रधान वली पांच छ रे, ते तले तेवीस छडीदार रे, कुडी० २१ राजधानी ते तेवीसने भालवी रे, तेनी खबर राखे जण पंचरे, कुडी० राजधानी एवी ते मेलवी रे, धर्मरायनुलंटे धन-संच रे, कुडी २२ बाघधर्मी ज एने आदरे रे, तेने भोलवे सवि छडिदार रे, कुडी० वश करी सोंषे मोहरायने रे, मोह करावे प्रमाद प्रचार रे, कुडी० २३ पछी नाखे ते नरक-निगोदमां रे, तिहां काल अनन्तो गुमाव रे, कुडी० दृढधर्मी मात्र एथी नवि चले रे जेणे कीधा क्षायकभाव रे, कुडी० २४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच समिति-ढालो प्रमादीने मोह पीडे घणु रे, अप्रमादी घरे नवि चार रे, कुडी० तिणे पंच महाव्रत में आदर्या रे, वली छोड्या सर्व अनाचार रे कुडी. २५ आचारथो हुँ हवे नवि चलं रे, सुण मुझ हृदय ! विरतंत रे, कुडी. कुमतिजी ! कहु तुमने एटलु रे, म्हारा साधर्मी जीव अनन्त रे, कुडी० २६ ते सर्वने ते दासपणु दियो रे, ते साले छे मुझ चित्त माय रे, कुडी. शुकीजे ते-पुंठ नवि फेरवे रे, तो पण मुझने दया थाय रे, कुडी० २७ तेथी हुँ देशना बहु विध करू रे, जिहां चाले म्हारो प्रयास रे, कुडी. चेतनजी ने बहुपरे पीछवु रे, तेने बतायु छुस्थिरवास रे, कुडी० २८ ते तो तारे वश फरी नवि होवे रे, तने वोसरावी शिव जाय रे, कुडी० धर्मरायनी. आणने अनुसरे रे, ते तो आनन्दघन महाराय रे, कुडी.२६ तिहां तुझथी नवि पहुँचाय रे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५० श्री अभय जैन ग्रन्थमाला के महत्वपूर्ण प्रकाशन :१-ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह २-बीकानेर जैन लेख संग्रह ३-दादा जिनकुशल सूरि ४-युगप्रधान श्राजिनदत्त सूरि ५-समय सुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि ६-ज्ञानसार ग्रन्थावली सादल राजस्थान रिसर्च इन्स्टीटयट के प्रकाशन :१-विनयचन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि २-पद्मिणी चरित्र चउ पई ३-धर्मवद्धन ग्रन्थावली ४-सीताराम चउउई [समय सुन्दर] ५-समय सुन्दर रास पञ्चक ६-जिनराज मूरि कृति कुसुमाञ्जलि ७--जिन हर्ष-ग्रन्थावली श्रीमद् देवचन्द्र ग्रन्थावली चौवीसी वोसो स्तवन २५ . सज्झाय संग्रह भाग १--२ शांत सुधारस उपाश्रय कमेटी प्रकाशन :-- राई देवसो प्रतिक्रमण J३१ पूजा संग्रह २)५० मिलने का पता :-नाहटा ब्रदर्स Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्र जी की गुणस्तुति-- खरतर गच्छ मांही थयारे लोल,नामे श्री देवचंद रे सोभागी जैन सिद्धांत शिरोमणि रे लोल, धैर्यादिक गुण वृन्द रे सोभागी [पद्मविजय कृत उत्तमविजय निर्वाण दाश] "पंचम काले देवचन्द जी, गंधहस्ति जे तुल्य / प्रभावक श्री वीर नो,थयो अधुना बहु मूल्य // " - श्री देवचन्द मुनीन्द्र ते जेन नो, स्तंभ सदृश थयो सत्य ! सुज्ञानी कवियण रचित देवविलास] ज्ञान दर्श चारित्र-व्यक्त रूपाय योगिने श्रीमते देवचंद्राय, संयताय नमो नमः // 1 // द्रव्याणुयोग गीतार्थो व्रताचार प्रपालक: देवचन्द समः साधु, राचीनो न दृश्यते / / 2 / / आत्मोद्गारामृतं यस्य, स्तवनेषु प्रदृश्यते त्रिविध ताप तप्तानां, पूर्ण शांति प्रदायकम् // 4 // आत्म शमा मृतस्वादी, शास्त्रोद्यान विहारवान यत्कृत शास्त्र पाथौधौ कुर्वन्ति सज्जना // 6 // सिद्धां Serving Jin Shasan ) रागिशेखरः माध्या त्यं नमोनमः // 7 // कृत देवचन्द्र स्तुति श्री हरिप्रसाद उपाध्याय द्वारा प्रभाकर प्रेस, 74, पथरियाघाट स्ट्रीट, कलकत्ता-६ से मुद्रित / 112430 gyanmandir@kobatirth.org atarnderwateUse Only Dainelibrary.org