SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा समिती की ढाल भावार्थ-योग पांचवां आश्रव है। मनो वर्गणा-वचन वर्गणा और काय वर्गणा के पुद्गलों का जीव के साथ संयोग होने का नाम योग है। योग का सीधा अर्थ है, आत्म प्रदेशों की चञ्चलता । जिन योगों के साथ मोहजनित प्रवृत्ति हो वे सावद्य और मोहरहित प्रवृत्ति हो, वे निर्वद्य कहलाते हैं । मुनियों ने कर्म बन्ध के कारण रूप योगाश्रव को निर्जरा का निमित्त कारण बना दिया है। जैसे पारस मणि के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है। वैसे ही चिद्रुप साध्य की साधना करते हुए मुनियों ने योगों को कर्म क्षय का निमित्त बनाया है ॥५॥ चलना फिरना एवं बोलना आश्रव रूप योगप्रवृत्ति है पर मुनिने इस योग प्रवृत्ति को निर्जरा का कारण बना दिया। जिस योग प्रवृत्तिसे कर्मबन्ध हो, वह मुनि नहीं करता । सम्यक्त्वी की क्रियायें निर्जरा रूप है। . साधु निज वीर्य थी पर तणो, नवी करे ग्रहण ने त्याग रे । ते भगी वचन गुप्त रहे, एह उत्सर्ग मुनि मार्ग रे -~६सा 'सा० शब्दार्थ...निज वीर्य थी =आत्म शक्ति से । परतणो=पुद्गलोंका । तेभणी-इसलिये भावार्थ...सारे द्रव्य स्वतंत्र हैं। चेतन में अचेतनता को और अचेतन में चेतनता की क्रिया न तो हुई, न होती हैं । इस निश्चय से साधु अपने आत्मिक वीर्य द्वारा आत्मिक-गुणों का ही ग्रहण करता है। परन्तु परभाव अर्थात् भाषावर्गणा के पुलों का ग्रहण और त्याग नहीं करता है। भाषा का व्यवहार-वचन प्रवृति आत्मा का स्वभाव नहीं हैं वह तो पुदगल एवं कर्मजन्य है इसलिये मुनि वचन-गुप्ति से रहे, मौन रहे। यह उत्सर्ग मार्ग-मुनियों का मार्ग है। आत्म हित परहित कारणे, आदरे पंच सज्झाय रे । भण असन वसनादिका, आश्रये सर्व अवधायरे-७सा० सा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy