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अष्ट प्रवचन माता सज्झाय
पर सहाय गुण वर्तना रे, वस्तु धर्म न कहाय । साध्यरसी तो किम ग्रहे रे, साधु चित्त सहायोरे--६ म. शब्दार्थ-पर सहाय=पुद्गलों के सहारे
भावार्थ-पर द्रव्य की सहायता से गुण की प्रवृत्ति होने पर उसे आत्म-धर्म नहीं कहा जाता। आत्म धर्म रूप साध्य को प्रगट करने वाला रसिक मुनि अपने 'चित्त से पर सहायता पर के उपयोग का आश्रय कैसे ले ? । अर्थात् आत्मा आत्मा की सहायता ले अपने उपयोग में ही रहे ।
आत्मरसी: आत्मालयी रे, ध्याता तत्व अनंत । स्यादवाद ज्ञानी म नि रे, तत्व रमण उपशांतोरे--१० म.
शब्दार्थ-आत्म रसी आत्मा के रसिक । आत्मा लयी=स्वभाव में लीन । ध्याता ध्याने वाला। उपशांत=कषायों को शांत करने वाले।
__ भावार्थ-आत्मा गुण या स्वभाव के रसिक, आत्मा में लीन, अनंत तत्व के ध्याता, स्याद्वाद के ज्ञाता, तत्त्व में रमण करने वाले मुनि कषायों एवं विकल्पों से उपशांत होते हैं।-१० नवि अपवाद रुचि कदा रे, शिव रसिया अणगार । शक्ति यथागमxसेवतां रे, निदे कर्म प्रचारोरे-११ मु.
शब्दार्थ--अपवाद रुचि अपवाद सेवन करने की अभिलाषा। अणगार मुनि । शक्ति ताकत । यथागम शास्त्रों में कहा है वैसे। कर्म प्रचार कर्म बंधन को।
भावार्थ-मुक्ति के रसिक मुनि कभी भी अपवाद-सेक्न की रुचि न करे। ग:रुचीxअथामे
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