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________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय जाता है । ओज-लोभ-और कवल ये तीनों ही आहार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यञ्च को होते हैं । यह जीव अयोगी न बन जाय तब तक आहार लेता ही रहता है। अपवाद इतना सा है किमृत्यु के पश्चात् परभव में जाते समय आत्मा यदि वक्रगति से जाये तो अधिक से अधिक तीन समय तक अनाहारिक रह जाता है। अथवा केवली समुद्घात के आठ समयों में से चौथा, पांचवाँ, छठा ये तीन समय अणाहारिक अवस्था के होते हैं। (सिद्ध भगवान तो अशरीरी होने से सदा अनाहारी ही है)। इन अपवादों को छोड़कर किसी भी स्थिति में आहार के विना नहीं रहा जा सकता। यह शरीर ही संसार का मूल है। यह जानते हुए भीज़ब तक शरीर है उसे बचाये रखने के लिये आहार देना आवश्यक होता है क्योंकि संयम आराधना भी इसी शरीर के द्वारा ही होता है। साधक को अशरीरी बनने का ध्येय लेकर चलना हे। वह तभी हो सकता है जबकि आहार ग्रहण करने में अलोलुपता और शरीर पर अममत्व रहे। -७ कवल आहारे निहार छे जीरे, एह अंग व्यवहार । धन्य अतनु परमातमा जीरे, जिहां निश्चलता सार-८९० मु० शब्दार्थ...कवल-ग्रास । अंग =शरीर ।व्यवहार =रीत। अतनु = शरीर रहित । 'भावार्थ मुनि के उठने व चलने रूप प्रवृति का चौथा कारण निहार को बतलाया है क्योंकि कवल आहार करने वालों के लिये यह प्रकृति सिद्ध नियम है, कि निहार (मल-त्याग) करना ही पड़ेगा। इसलिये मुनि अशरीरी सिद्धभगवान) परमातमा की निश्वलता को धन्य समझता हुआ उसकोभावनाभाता है ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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