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________________ ढाल ७ सातवीं “वचनगुप्ति" __ "सलूणा" की देशीवचन गुप्ति सूधी धरो, वचन ते कर्म सहाय । उदयाश्रित जे चेतना, निश्चय तेह अपाय-सलणे-वचन-१ शब्दार्थ-उदयाश्रित = उदय काल के आधीन। अपाय =दोष । भावार्थ-हे मुनि ! वचन गुप्ति को अच्छी तरह धारन करो। क्योंकि वचन मात्र ही कर्म बन्ध का सहायक है। भाषा पर्याप्ति रूप बांधे हुये कर्मो का उदय ही वचन प्रवृत्ति की कारण हैं। चेतन का कर्मों के उदयाधीन होना निश्चय दृष्टि से ल्याज्य है,। मौन रूप वचनगुप्ति हो उपादेय है-१ वचन अगोचर आतमा, सिद्ध ते वचनातीत । सत्ता अस्ति स्वभाव में रे, भाषक भाव अतीत-२ व० शब्दार्थ-वचन अगोचर वाणी से कहा नहीं जाता। वचनातीत =वचन से कहा नहीं जाता । सत्ताः ताकत । अस्ति =है | भाषक भाव अतीत= बोलने के भाव से रहित। भावार्थ--आत्मा वचनों से अगोचर हैं-अर्थात् आत्म स्वरूप वचनों द्वारा नहीं कहा जा सकता। त्तिद्ध भगवान भी वाणी रहित हैं। क्योंकि वाणी पुद्गल मयी है और सिद्धों का पुद्गलों से कोई संबंध नहीं। अभाषक दशा की सत्ता आत्म स्वभाव में रही हुई है । क्योंकि अपनी आत्मा भी सत्ता में सिद्धों के समान ही है।-२ अनुभव रस आस्वादता, करता आतम ध्यान । वचन ते बाधक भाव छै रे, न वदे मुनिय निदान-३-व० शब्दार्थ-निदान =कारण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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