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________________ ढाल - ५ पांचवीं " परिठावणिया समिति" की "कडलां घड़ दे रे " ए देशी" पांचवीं समिति कहो अति सुंदरू रे, परिठावणिया नाम । परम अहिंसक धर्म वधारणी रे, मृदु करुणा परिणाम -१ मुनिवर सेवजो रे, समिति सदा सुखदाय । स्थिर भाव संयम सोहिये रे, निर्मल संवर थाय...२मु० शब्दार्थ...धर्म वधारणी-धर्म बढाने वाली । मृदु = कोमल । स्थिर भावे = स्थिरता से । सोहिये - शोभा देते है । भावार्थ = पारिठावणिया नाम की पांचवीं समिति बड़ी सुन्दर है । जिसके पालन से आत्मा के परिणाम कोमल और करुणा वाले बनते हैं । यह परम अहिंसा धर्म को बढाने वाली है । अतः हे मुनिवर ! सदा सुख देने वाली इस समिति का सेवन करो । क्योंकि योग की स्थिरता से संयम को शोभा होती है, तथा निर्मल संवर की प्राप्ति होती है ।... १, २ देह नेह थी चंचलता वधे रे, विकसे दुष्ट कषाय । तिण तनुराग तजी ध्याने रमे रे, ज्ञान चरण सुपसाय - मु० - ३ शब्दार्थ... देहनेह थी = शरीर के मोह से । कषाय = क्रौध-मान- माया = लोभ १ पंचम २ थिरता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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