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________________ इर्या समिति को ढाल भावार्थ...काया गुप्ति उत्सर्ग मार्ग है, और ईर्या समिति, काया गुप्तिका अपवाद मार्ग है । आगमोक्त विधि विधानों का पालन करते हुये चलने का नाम ईर्या समिति है। जैसे कि द्रव्य से ईर्या समिति क्षेत्र, से साढ़े तीन हाथ की लम्बाई तक भूमिगत दृष्टि रख कर चलना, काल से दिन दिन में और भाव से पांच इन्द्रियों के विषयों और पांच प्रकार की स्वाध्याय की वर्जना करके चलना विधि मार्ग है । ज्ञान ध्यान सज्झायमां जी रे, स्थिर बैठा मुनिराय । शाने चपलपण करे जी रे, अनुभव रस सुख राय-३ .मु० शब्दार्थ...ज्ञान-तत्त्वचिंतन । ध्यान = चित्त की एकाग्नता । सज्झाय = स्वा घ्याय, शाने= किस लिये । अनुभव रस आत्मिक आनंद । ___ भावार्थ--ज़बकि ज्ञानो(तत्त्व चिंतन), ध्यान (चित्त की एकाग्रता), स्वाध्याय, में स्थिर बैठे हुए मुनियों को अनुभवरस का वह सुख मिलता है, जो कि चक्रवत्तियों को भी सुलभ नहीं है । तब ऐसे मुनियों को खाना, पीना, उठना, बैठना, जाना, आना आदि क्रियायें करने की क्या आवश्कता है ? इन सब कार्यों में तो योगों की चपलता रही हुई है । - ३ मुनि उठे वसही थकी जीरे, पामी कारण चार । वजिनवंदन,(१)गामांतरे,(२),जीरे, के आहार(३),निहार(४)-४मु० शब्दार्थ...वसही स्थान । पामी =पा करके । गामांतरे एक ग्राम से दूसरे गाम । आहार =भोजन। निहार =मलत्याग-शौचादि । ___ भावार्थ "कारण-मंतरा मंदोपि न प्रवर्त्तते" अर्थात् प्रयोजन के बिना मूर्ख भी प्रवृत्त नहीं होता ! मुनि तो विशेष योग्यता वाले होते हैं, अतः उनके उपाश्रय से बाहर जाने के अत्यन्त उपयोगी चार कारण बतलाये हैं। १ जिनकन्दन, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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