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________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय २ विहार, ३ आहार और ४ निहार । उनकी उपयोगिता व आवश्यकता क्रमशः आगे की गाथाओं में बतलाई जायेगी परम चरण संवर धरु जीरे, सर्व जाण जिन दीठ शुचि समता रुचि उपजे जीरे, तेणे मुनिने इट-५ मु० म० शब्दार्थ...परम= उत्कृष्ट । चरण = साधुपना ।संवरधरु= संवर को धारण करने वाले । सर्वजाण = सर्वज्ञ । दीठ = देखने से । शुचि पवित्र । समता रुचि समभाव की इच्छा । तेणे = इसलिये । इछु = इष्ट-प्रिय-करने लायक।। भावार्थ"जिन वंदन व मन्दिरों में जाकर वीतराग मूर्ति के दर्शन क्यों करना चाहिये ? उसका प्रयोजन एवं फल बतलाते हुए कहा गया है कि मुनि बनने: का उद्देश्य होता है, वीतराग पद पाना। इसलिये वीतराग पद पाये हुये श्री जिनेश्वर देव को वन्दन करने के लिये मुनि चैत्य (देहरासर) में जाते हैं । संवर धारक, परम चरण (यथाख्यात चारित्र) वाले, सर्वज्ञ श्री जिनेश्वर देव के दर्शन से मुनि को पवित्र समता की रुचि उत्पन्न होती है । शुचि समता का अर्थ है । - अकषाय दशा (समभाव) :जिससे अहंकार और ममकार वृत्ति का उच्छेद होता है। अथवा शुचि समता का अर्थ है-प्राणीमात्र को आत्मवत् समझना। तथा तीसरा अर्थ है-अपने को उच्च और अन्य किसी को हीन मानने की भावना का समाप्त होना। चौथा अर्थ है-अपनी आत्मा को संग्रह नय की दृष्टि से जिनेश्वर देवके समान सभझना। प्रभु दर्शन करते हुए दो क्षण के लिये तो मुनि अपनी वैभाविक दशा को भूलकर स्वभाव-परक हो जाता है । मन से सोचता है कि यह वैकारिक दशा संयोग और कर्मजन्य है । स्वरुपतः तो आत्मा अपने आप में स्फटिकरत्न के तुल्य सदा स्वच्छ ही है। अतः मुझे चाहिये कि अनंत वीर्योल्लास से इन कर्म बंधनों को तोडकर जिनेश्वर की तरह निराबाध सुखी बन जाऊ। इसलिये मुनि को जिनवंदन करने के लिये जाना इष्ट है-५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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