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________________ परिठावणिया समिति की ढाल ३7 के पच्चक्खाण में “पारिठावणियागारेण” आगार रखा जाता है तब तपस्वी मुनि उस अधिक आहार को परठने में जीव विराधनादि संभव होने से अपने उदर रूपी कोठे में परठते हैं । उस वक्त आहार में लोलुपता तथा शरीर पर राग भाव नहीं है । धैर्यवान मुनि के लिये यह एक अपवाद मार्ग है । I ..६ स' लोकादिक दूषण परिहरी रे, वरजी ने द्वेष । आगम रीते परठवणा करे रे, लाघव हेतु विशेष – ७ म० शब्दार्थ - - संलोकादिक लोग देखते हों, पास होकर आते जाते हों, आदिक दोष । लाघव हेतु = लघुता का कारण । भावार्थ--मल-मूत्रादिक परठते समय संलोकादिक १०२३ दोषों को वरजे । राग द्वेष को टालकर आगमोक्त विधि सहित परठे । अपनी लघुता धारन करे अर्थात् मैं ऐसा काम क्यों और कैसे करू, इस प्रकार अहंकार न आने दे, परठणा लाव का विशेष हेतु है ... ७ कल्पातीत अहालंदी क्षमी रे, जिन कल्पादि मुनीश । तेहने परठवणा एक मल तणी रे, तेह अल्पवलि दीस - ८ मु० शब्दार्थ –कल्पातीत = कल्प - नियम से रहित । तहने उनको | अल्पवती -थोड़ो । दीस दीखती है । " भावार्थ-कल्पातीत अर्थात् जिनेश्वरदेव, जिनकल्पी, यथालन्द कल्पी, परिहारविशुद्ध चारित्र वाले, पडिमाधारी, अभिसारी को सिर्फ मल परठने का काम पड़ता है । वह भी रूक्षाहार होने से बहुत ही अल्प और अलेप होता है -८ रात्रे प्रश्रवणादिक परठवे रे, विधिकृत मंडल ठाम । स्थविर कल्प नो विधि + अपवाद छैरे, ग्लानादिक ने काम श्मु +प्रति Jain Educationa International राग For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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