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________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय संयम बाधक आत्म 'विराधना रे, आणा घातक जाण। उपधि अशन शिष्यादिक परठव रे, आयति लाभ पिछाण-५१० शब्दार्थ-आत्म विराधना=ज्ञानादिक का नाश । आणा घातक आज्ञा की धात करने वाला। उपधि = उपकरण। आयति =भविष्यकाल । ____ भावार्थ--जो संयम में बाधक हों, आत्म विराधना करने वाले हों, श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा के घातक हों, उन उपधि; आहार, तथा शिष्यादिक को भी भविष्य का लाभ देखकर परठ दे। तात्पर्य यह है, कि संयम की साधना तथा जिनाज्ञा का सुंदर ढंग से पालन करने के लिये उपधि आदि का ग्रहण किया जाता है। वे ही चीजें यदि संयम में बाधक बनजाती हो तब उन्हें परठने में संकोच नहीं होना चाहिये। जैसे आधाकर्मी वगेरे दोषों वाला आहार आने से तथा भूल से कोई विषैला भोजन आजाने से यदि न परठा जाये तो दोष है। इसीलिये शिष्य भी यदि आचार और विचार में शिथिल है, पासत्था है, अपने लिए, बाधक बनरहा है तो उसे संघ से पृथक न करने में हानि है; और छोड़ देने में विशेष लाभ है।...५ वधे आहारे तपीया परठवे रे, निजकोठे अप्रमाद । देह अरागी भात अव्यापता रे, धीर नो ए अपवाद--६ मु० शब्दार्थ-वधे=जरूरत से अधिक होने पर । तपीया = तपस्वी। परठवे= अपनी विशेष विधि द्वारा गिराये। निज कोठे-अपने उदर रूपी कोठे में । भात अव्यापता=आहार पर अलोलुपता । धीर नो=धर्यवान का । भावार्थ =तपस्वी मुनि के जिस दिन उपवास का पच्चक्खाण हो, अस दिन यदि अन्य मुनियों के लाये हुए आहार को परठने का अवसर आ जाय, तब गुरु देव आज्ञा देते हैं, कि हे तपस्वी ! यह आहार तुम करलो। क्योंकि उपवास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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