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उत्तराध्ययन सुत्रम् का चौबीसवाँ अधयाय
७९ इन्द्रियों के विषयों और पाँच प्रकार के स्वाध्याय का परित्याग करके तन्मय होकर ईर्या को सम्मुख रखता हुआ उपयोग पूर्वक गमन करें ॥८॥
क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्य, भय, मुखरता और विकथा में उपयुक्तता होनी चाहिए ॥ ६ ॥
बुद्धिमान् संयत पुरुष उक्त आठ स्थानों को परित्याग कर, यथा समय परिमित और असावद्य भाषा को बोले ॥१०॥
गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगेषणा तथा आहार, उपधि और शय्या इन तीनों की शुद्धि करे ॥११॥
संयम शील, यति प्रथम एषणा में उगम और उत्पादन आदि दोषों को शुद्धि करे। दूसरी एषणा में-शंकितादि दोषों की शुद्धि करे। तीसरी एषणा में पिंडशम्या, वस्त्र और पात्र आदि को शुद्धि कर ॥१२॥
ओधोपधि और औपग्न हिकोपधि तथा दो प्रकार का उपकरण-इनका ग्रहण और निक्षेप करता हुआ वह साधु वक्ष्यमाण विधि का अनुसरण करे अर्थात् इनका ग्रहण और निक्षेप विधिपूर्वक करे ॥१३॥
संयमी साधु आंखों से देखकर दोनों प्रकार की उपाधि का प्रमार्जन कर तथा उसके ग्रहण और निक्षप में सदा समिति वाला होवे ॥१४॥
मल-विष्टा, मूत्र, मुख का मल, नासिका का मल, शरीर का मल, आहार उपधि शरीर और भी इसो प्रकार के फेंकने योग्य पदार्थ, इन सब को विधि यतना से फेके ॥१५॥
१ आता भी नहीं और देखता भी नहीं । २ आता नहीं परन्तु देखता है। ३ आता है परन्तु देखता नहीं। ४ आता भी है और देखता भी है ॥ १६ ॥
अनापात जहाँ लोग न आते हों । असलोक लोगः न देखते हों, पर जीयों
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