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स्वर्गीय गणिवर्य बृद्धिमुनिजी
अपने शिष्यों को हित की शिक्षा देते रहते थे। शिष्यों ने कहा कि उक सूत्र के गुजराती अनुवाद का मुद्रण अधूरा पड़ा है । उसे कौन पूरा करेगा ? प्रत्युत्तर में आपने कहा-इसकी चिन्ता मत करो, जहां तक वह पूरा नही होगा; मेरी मृत्यु नहीं होगी। आप का दृढ़ निश्चय और भविष्यवाणी सफल हई और आपके स्वर्गवास के दो-तीन दिन पहले ही कल्पसूत्र छप कर आ गया और उसे दिखाने पर आपने उसे मस्तक से लगाया ऐसी आपकी अपुर्व ज्ञान भक्ति थी।
श्रावण सुदी पंचमी से आपकी तबियत और भी बिगड़ने लगी पर आप पूर्ण शाँति के साथ उत्तराध्ययन, पद्मावती सज्झाय, प्रभंजना व पंचभावना को सज्झाय आदि सुनते रहते थे । सप्तमी के दिन आपका शरीर ठंडा पड़ने लगा। उस समय भी आपने कहा-मुझे जल्दो प्रतिक्रमण कराओ । प्रतिक्रमण के बाद नवकार मन्त्र की अखण्ड धुन चालू हो गयी। सबसे क्षमापना कर ली। रता साढ़े तीन बजे आपने कहा मुझे बैठाओ ! पर एक मिनट से अधिक न बैठ सके और नवकार मन्त्र का स्मरण करते हुए श्रावण शुक्ला अष्टमी पार्श्वनाथ मोक्षकल्याणक के दिन स्वर्गवासी हो गये। ___ आप एक विरल विभूति थे । आपके चारित्र को प्रशंसा स्वगच्छ और परगच्छ के सभी लोग मुक्त कण्ठ से करते थे। ज्ञानोपसना भी आपकी निरन्तर चलती रहती थी। एक मिनट का समय भी व्यथं खोना आपका बहुत ही अखरता था। साध्वोचित्त क्रियाकलाप करने के अतिरिक्त जो भी समय बचता था; आप ज्ञान सेवा में ही लगाते थे । इसीलिए आपने कई ज्ञानभडारों की सुव्यवस्था की, सूची बनाई । आप जो काम स्वय कर सकते थे, दूसरों से नहीं करवाते थे ! श्रावक समाज का थोड़ा सा भी पैसा बरबाद न हो और साध्वाचार में तनिक भी दूषण
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