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मुनि गुण स्तुति की डाल शब्दार्थ-चरण थानक-चारित्र के परिणामों के स्थान। मुटु असत्य ।
शब्दार्थ-संयम के स्थानों को स्पर्श विना भाव चारित्र नहीं हो सकता। इसलिये जिनवाणी का मर्म जानने वाला मुनि झूठ ही क्यों कहेगा, कि मैं भाव चारित्र वाला हूँ।-१३ जस लोभे जन* सम्मत थायवाx, पर मन+रंजन काज सु। ज्ञान क्रिया द्रव्यतः विधि साचवे, तेह नहीं मुनिराज |सु १४ध।
शब्दार्थ-जसलोभे यशोलिप्सा से । जन सम्मत लोकमान्य । परमन लोगों के मन । तेह-वह
भावार्थ-- भाव से नहीं, किंतु द्रव्य से भी ज्ञानाभ्यास तथा चारित्र की क्रियायें करते समय यदि यह भावना बनी रही कि इससे लोग मुझे पंडित और चारित्रवान कहेंगे। तथा अच्छ व्याख्यान से लोगों का चित्तरंजन करूंगा तो मुझे लोगों का समर्थन मिलता रहेगा। इस उद्देश्य से उपरोक्त द्रव्य (बाहरी) विधियाँ करने पर भी वह मुनि नहीं है ।-१४ बाह्य दया एकांते उपदिशे, श्रुत आम्नाय बिहीन । सु वग परि ठगता मूरख लोकने, बहु भमशे ते दीन । सु १शष। - शब्दार्थ-एकांते सिर्फ। उपदिशे-कहते हैं। श्रुत आम्नाय ज्ञान की परंपरा। विहीन-रहित । बग परे बगले के समान। भमसे संसार में जन्म ण करेंगे। दीन-गरीब ।
भावार्थ-आत्म गुणों की रक्षा रूप जो भाव दया है, उसे पहचाने बिना एकांत रूप से बाहय दया ( जीवरक्षा ) का उपदेश देनेवाले श्रुत आम्नाय
*निजxथापवा+जन
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