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________________ अष्ट प्रबचन माता सज्झाय ५६. ( परंपरा ) से हीन हैं। मीन जैसे मूढ लोगों को बगले के समान ठगने वाले दीन मुनि संसार में बहुत काल पर्यंत परिभ्रमण ( जन्म मरण ) करेंगे । —१५ अध्यातम परिणति सोधन ग्रही, उचित वहे आचार । सु० । जिन आणा अविराधक पुरुष जे, धन्य तेनो अवतार | सु. ०१६धा शब्दार्थ —— ग्रही ग्रहण करके । उचित = योग्य | अविराधक = आराधना करनेवाला | अधतार = जन्म भावार्थ — आध्यात्मिक परिणतिके साधनों को ग्रहण करके जो उचित आचार का पालन करता I तथा जिनाज्ञा का आराधना करता है, उस अविराधक मुनि का मानव - जन्म सफल है ।— -१६ द्रव्य क्रिया नैमित्तिक हेतु छै, भावधर्म लयलीन । सु० । निरुपाधिकता जे निज अंशनी, माने लाभ नवीन | सु० | १७६ । शब्दार्थ - निरुपाधिकता = आत्म प्रदेशों की उज्वलता । नवीन =नया | भावार्थ- -- द्रव्य क्रियायें तो केवल निमित्त कारण हैं । भावधर्म तो आत्मा में लीन होना है । भावना युक्त द्रव्य क्रियायें करने से अपनी आत्मा की जितने अंशों में निरुपाधिकता ( निर्जरा से उत्पन्न उज्वलता, ) स्वभाव में स्थिरता हो, मुनि उसे नया अपूर्व लाभ समझे ।—१७ परिणति दोष भणी जे निंदता, कहेता परिणति धर्म । सु० । योग ग्रंथ ना भाव प्रकाशता तेह विदारे हो कर्म | सु० १८|| शब्दार्थ — परिणतिदोष = विभाव दशा | योग थ = योगदृष्टि समुच्चय, योगशास्त्र, ज्ञानसार, द्रुम आदि । विदारे=क्षय करे | Jain Educationa International परिणतिधर्म = स्वभाव दशा । अध्यात्मसार, अध्यात्म कल्प For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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