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वचन गुप्ति की ढाल
भाव |
समकित गुणठाणे करयो, साध्य अयोगी उपादानता तेहनी, गुप्तिरूप स्थिर भाव...६...व ०२ शब्दार्थ - समकित गुणठाणे = चौथे गुणस्थान में । अयोगी भाव = योगों से रहित बनने का भाव । उपादानता = मूल कारण ।
भावार्थ- सम्यग् दृष्टि गुणस्थान प्राप्त होते ही आत्मा ने अपना साध्य अयोगी भाव स्थिर कर लिया कि मुझे अयोगो बनना है। अस अयोगी भाव का उपादान ( मूलकारण ) आत्मा का गुप्ति रूप स्थिर भाव ही है । - गुप्तिरूप गुप्ते रम्या, कारण समिति प्रपंच ॥ करता स्थिरता ईहता, ग्रहे तत्व गुण संच...१० व० शब्दार्थ - प्रपंच = विस्तार | इहता = चाहते हुये । संच = संचय
भावार्थ - आत्मा गुप्ति रूप है अर्थात् योगों की स्थिरता रूप गुप्ति ही आत्मा का स्वभाव है अतः गुप्ति में रमण करे । संयम साधन आदि कारणों से आवश्यकता पड़ने पर पांच समितियों का सेवन करना पड़ता है । अतः समिति रूप प्रपंच प्रवृत्ति को करने पर भी स्थिरता को ही चाहते हैं इस तरह गुप्ति एवं समिति का यथोचित पालन करते हुये मुनि तत्त्व और गुणों का संचय करे । १० उत्सर्गनी, दृष्टि न चूके तेह ॥ प्रणमे नित्यप्रति भाव सू', 'देवच'द्र' मुनि तेह सलूणे वचन गुप्तिसूधी धरो... ११
अपवादे
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भावार्थ - जो मुनि अपवाद स्वरूप पांच समितियों का सेवन करते हुये भी गुप्ति रूप उत्सर्ग मार्ग के लक्ष्य को नहीं भूलते हैं । अर्थात् जिन्हें साध्यरूप 'गुपियों का ही ध्यान हरसमय बना रहता है । उन मुनिजनों को मुनि श्री देवचन्द्र जी भावना पूर्वक नितप्रति वंदना करते हैं । - ११
*रुची
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