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________________ "मुनि गुण स्तुति की ढाल' कार्य सिद्ध होता हो । अपेक्षा कारण का अर्थ है आवश्यकता-जैसे मोक्ष सिद्धि में मनुष्यभव और वज्र ऋषभ नाराच संघयण ( शरीर की सुदृढ रचना ) की पूर्ण अपेक्षा है । इनमें से जिन-जिन कारणों से आत्मा को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ, वह एक कार्य हो चुका । यही समकित रूपी कार्य चारित्ररूपी कार्य का कारण बन जाता है। चारित्ररूपी कार्य मुक्ति का कारण है ही। इस प्रकार कारण और कार्य को साधनरूप में स्वीकार करके मुनि संतोषपूर्वक अपने साध्य को साधे ॥२॥ गुण पर्याये वस्तु परखता, सीख उभय भंडार । सुगुणनर । परिणति शक्ति स्वरूपेपरिणमी, करतातसुव्यवहार । सु०३ धा शब्दार्थ-गुण पर्याये=गुण और अवस्थाओं से । उभय दोनों भावार्थ-गुण तथा पर्याय से वस्तु को परखनेवाले, ग्रहण शिक्षा ( अतादि ग्रहण करना ) और आसेवन शिक्षा ( ब्रतका पालन ) के धारन करने वाले, आत्मा की परिणमन शक्ति के स्वरूप में ही परिणमन करनेवाले, मुनि व्यवहार ( आचार ) भी तदनुसार ही करेंगे । ३ । लोकसन्ना वितिगच्छा वारता, करता संयम वृद्धि । सुगुण । मूल उत्तर गुण सर्व सभारता, करता* आत्म शुध्दि । सु०४धा शब्दार्थ-लोकसन्ना लोकप्रवाह । वितिगिच्छा-धर्म के फल में संदेह । भावार्थ-लोक संज्ञा अर्थात् जो गडरिया प्रवाह रूप विवेक शून्य लोकाचार हो उसे तथा विचिकित्सा अर्थात् करनी के फलों में संदेह हो उसे छोड़कर संयम की वृद्धि करे। मूल गण अर्थात् पांचमहाव्रत तथा उत्तर गुण अर्थात् दस पच्च क्खाणदि को संभालता हुआ मुनि आतमा की शुद्धि करे ।-४ *धरताधरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003829
Book TitleAsht Pravachanmata Sazzay Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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