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अष्ट प्रवचन माता सज्झाय
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श्रुतधारी श्रुतधर-निश्रा-रसी, बशी करया त्रिक योग । सु० । अभ्यासी अभिनव श्रुत सारना, अविनाशी उपयोग।
सुशध० शब्दार्थ-श्रुतधारी=ज्ञानी । श्रुतधरनिश्रा-बहु श्रुतो के आधीन । अविनाशी अचल । ५। ___भावार्थ-मुनिस्वयं श्रुतधारी ( ज्ञानी ) होते हुए भी बहुश्रुती के निश्रा ( आधीन ) रहनेवाला, तीनों योगों को वश करनेवाला; नये-नये ज्ञान के सार का अभ्यास करनेवाला; अविनाशी उपयोग वाला बने । ॥ ५ ॥ द्रव्य भाव आश्रव मल टालता, पालता संयम सार। सांची जैन क्रिया संभारता, गालता कर्म बिकार ।सु०६०। ___ भावार्थ-कर्म पुदगलों के ग्रहणरूप द्रव्य आश्रव; तथा द्रव्य आश्रव के कारण रूप मिथ्यात्वादि पांच भाव आश्रवों के मल को टालते हुए; संयम को पालते हुए जैनमतानुसार सची क्रियायें शुभ प्रवृत्ति विधिपूर्वक करते हुए मुनि कर्म विकारों को गाल देते हैं। ६। सामायक आदिकगण श्रेणी में, रमता चढ़ते रे भाव ।सुगणा तीनलोक थी भिन्न त्रिलोक में, पूजनीक जसु पाव ।सु०७०) ___ शब्दार्थ...पूजनीक पूज्य । जसु=जिसके । पाव-चरण ।
भावार्थ-समभाव रूपी गुण श्रेणी में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए भावों में रमते हुए; तीनलोक से भिन्न अर्थात संसारी जीवों से भिन्न प्रकार की शुद्ध आत्म परिणतिवाले, मुनियों के चरण त्रिलोकी पूजित हैं। ७ । अधिक गणी निज तुल्य मणी थकी, मिलता जे मुनिराज । परम समाधि निधि भव जलधि ना, तारण तरण जहाज।सु०८धा
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