Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ ढाल ८ आठवीं काया"गुप्त" "अरणिक मुनिवर चोल्या गोचरी" ए देशी गुप्ति सभारो रे तीजी मुनिवरु, जेहथी परमानंदो जी मोह टले धनघाती परगले, प्रगटे ज्ञान अमदोज़ी...गुप्ति १ शब्दार्थ-धनधाती-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय-अंतराय । परगले गलजाय ! अमंद-एक जैसा रहनेवाला ।। भावार्थ-हे मुनि ! तीसरी काया गुप्ति धारन करो। इसके आराधन से ही परमानंद की प्राप्ति होती है। मोह कर्म टलता है। और घनघाती (ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय-अंतराय) कर्मों का नाश हो जाता है। फिर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है-१ किरिया शुभ अशुभ भव वीज छै-तिण तजी तनु व्यापारोजी चंचल भाव ते आश्रव मूल छे, जीव अचल अविकारो जी गु०२ ___ शब्दार्थ-भवबीज संसार का कारण । तनुव्यापार-काया योग । अविकार=विकार रहित । भावार्थ-शुभ तथा अशुभ दोनों ही क्रियायें संसार के बीज हैं। अतः काया के योग (प्रवर्तन) को ही छोड़ो। कायिक चपलता ही आश्रव का मूल है। शुभ कार्यों के लिए किया गया कायिक व्यापार यद्यपि शुभ बंध के लिये होता है। फिर भी है तो बंधन ही। जीव का स्वरूप तो अचल ( स्थिर ) और अविकारी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104