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अष्ट प्रवचन माता सज्झाय
भावार्थ-जब तक चैतन्य शक्ति आत्म गुणों को प्रेरणा देती है, तब तक कर्मों का संवर और निर्जरा होती हैं। इससे विपरीत आत्मा यदि पर सहायक बन जाती है तो नये कर्मों का ग्रहण ( आश्रव ) हो जाता है। -६ इम जाणी स्थिर संयमी, न करे चपल पलीमंथ । आत्मानंद आराधतां, अत्तथी *निर्ग्रन्थ । -७ व० शब्दार्थ-चपल पलोमंथ =चपलता रूपी दोष । अत्तत्थी आत्मार्थी ।
भावार्थ-आत्मा और पुद्गल का स्वरूप पिछान करके स्थिर संयमी मुनि चपलता रूपी पलोमंथ ( दोष ) न करे। आत्मा की अकंप-दशा ही मूल स्वभाव है। चपलता विकार-जन्य है। इसलिये आत्मार्थी निग्रंथ आत्मानंद की आराधना करे। -७ साध्य 'सिद्ध+परमातमा, तसु साधन उत्सर्ग । बारे मेदे तप विषे, सकल श्रेष्ठ व्युत्सर्ग। ...८ व०
शब्दार्थ-बारे भेदे बारह प्रकार के। तपविषे तपस्या में। व्यत्सर्गवोसिराना-छोडना। __ भावार्थ-सिद्ध परमात्मा का स्वरूप तो साध्य है, आत्मा साधक है, साधन है उत्सर्ग--अर्थात् परभावों का त्याग । छःबाह्यतथा छः आभ्यंतर इन बारह प्रकार की तपस्याओं में अत्सर्ग ही सर्व श्रेष्ठ तपस्या है। उत्सर्ग दो प्रकार का है द्रव्य उत्सर्ग और भाव उत्सर्ग। कायोत्सर्ग-भक्तपान उत्सर्ग-उपधि उत्सर्ग तथा गणोत्सर्ग आदि द्रव्य-उत्सर्ग के अंतर्गत हैं। भावोत्सर्ग तीन प्रकार का है १ भवोत्सर्ग.२ कर्मो त्सर्ग. ३ तथा कषायोत्सर्ग। कषाय के त्याग से कर्म का त्याग तथा कर्म के त्याग से भव का त्याग फलित होता है ।--८
* आज्ञाय+शुद्ध
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