Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 60
________________ काया “गुप्ति की ढाल इन्द्रिय विषय सकल नो द्वार ए, बंध हेतु दृढ़ एहो जी। अभिनव कम ग्रहे तनु योग थी, तिण स्थिर करिये देहोजी ३ शब्दार्थ--अभिनव-नये । भावार्थ:--- पांचों इन्द्रियों के समस्त विषयों का द्वार यह शरीर है। और यही कर्म बंध का दृढ कारण है। कायिक योग से नये कर्मों का ग्रहण होता है अतः हे मुनि ! इस कायिक योग को रोक कर देह को स्थिर करो-३ आतमवीर्य स्फुरे परसंग जे, ते कहीये तनुयोगो जी। चेतन सत्ता रे परम अयोगी छै निर्शल स्थिर उपयोगो जी।४। शब्दार्थ-स्फुरे काम करता है। उपयोग-ज्ञान गुण । भावार्थ-पुद्गलों के संयोग से जो आत्मवीर्य ( करण वीर्य) की स्फुरणा होती है, उसका नाम काया-योग है। चेतन की सत्ता तो परम अयोगी है। वह अयोगी दशा निर्मल और स्थिर उपयोग वाली है। -४ यावत कंपन तावत बंध छै, भाख्यु भगवई अंगेजी। ते माटे ध्र व तत्व रसे रमे-माहण ध्यान प्रसंगे जी ।। गु० । ___ शब्दार्थ-यावत्= जबतक । कंपन=आत्म प्रदेशों की चंचलता। ताक्त्= तबतक। ध्रुव-निश्चल। माहण=मुनि। __ भावार्थ- श्री भगवती सूत्र में कहा है कि आत्म प्रदेशों का अबतक कंपन है ( सूक्ष्म हलन चलन ) है, तबतक बंधन है । तेरहवें गुणस्थान तक योग (चंचलता) है। योग है वहां बंधन है। इसलिये मुनि शाश्वत-आत्म-तत्त्व-अनुभव रस में रमण करता हुआ ध्यानादिक के प्रसंग में कायिक चपलता का सर्वया त्याग कर lain Editionelle E Rersonal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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