Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 56
________________ वचनगुप्ति की ढाल ४७ भावार्थ-अनुभव रस का आस्वादन लेते हुये तथा आत्म ध्यान करते हुये मुनि वचन से बिल्कूल न बोले। क्योंकि बोलना आत्म स्वरूप की स्थिति में बाधकः है। इसलिये वचन गुप्ति ही श्रेष्ठ है।-३ वचनाश्रव पलटाववा, मुनि साधे स्वाध्याय । तेह सर्वथा गोपवे, परम महारस थाय-४ व० . शब्दार्थ-बचनाश्रव=वचन द्वारा पापों का ग्रहण। पलटाववा=पलटने के लिये। गोपवे = रोके। परम महारस=आत्मानंद ।। भावार्थ-अशुभ वचन रूपी आश्रव से बचने के लिये मुनि स्वाध्याय करे । अर्थात् शुभयोग में प्रवर्तावे। फिर शुभ वचन को भी सर्वथा रोक करके परम महारस रूप आत्मानंदी-मुक्त बन जाये -४ भाषा पुदगल वर्गणा, ग्रहण निसर्ग उपाधि । करवाxआतम वीर्य ने, शाने प्रेरे साध-५ व० शब्दार्थ-वर्गणा=पुद्गलों का समूह । निसर्ग छोडना। शाने= किसलिये। प्रेरे=प्रेरणा करे।। ___ भावार्थ-भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करना, तथा उनको छोड़ना, अर्थात् बोलना, आत्म स्वभाव के लिये उपाधि है। फिर मुनि अपनी शक्ति को उस तर्फ ( वचन की तर्फ ) क्यों लगाये ? अर्थात् नहीं लगाये । --५ यावत् वीरज चेतना, आतम गुण संपत्त । तावत् संवर निर्जरा, आश्रव पर आयत्त । ६ व० शब्दार्थ-यावत् =जब तक। वीरज चेतना - चैतन्य शक्ति। संपत्त = संप्राप्त । पर आयत्त-पुद्गलाधीन । xकरतां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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