Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 50
________________ मनोगुप्ति की ढाल गुप्ति प्रथम ए साधु ने रे, धर्म शुकल नो रे कंद । वस्तु धर्म चिंतन रम्या रे साधे पूर्णानन्द -~-३ मु. शब्दार्थ-धर्म-शुल्क = धर्म ध्यान श्रुक्ल ध्यान। कंद=सार। चिंतन = विचारने में। ___ भावार्थ-मनोगुप्ति ही धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान का मूल है। ध्यानस्थ मुनि मन को रोक कर वस्तु धर्म के चिंतन में रमा हुआ पूर्णानन्द को पाता है । श्री उत्तराघ्ययन सूत्र में कहा हैगाथा-दवं गुण समुदाओ, खित्त ओगाह वट्टणा कालो। गुण पज्जाय पवत्ति, भावो निअ वत्थु धम्मो सो द्रव्य–अर्थात् गुण का समुदाय, क्षेत्र अर्थात् अवगाहना रूप प्रदेश, काल-- वर्तना, उत्पाद-व्यय, और ध्रौव्य, भाव-अर्थात् गुण-पर्याय की प्रवृत्ति । यह स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल तथा स्व-भाव रूप वस्तु धर्म होता है। तथा १ आचार धर्म-२ दयाधर्म-३ क्रिया धर्म और ४-वस्तु धर्म ऐसे चार भेद भी ठाणांग के चौथे ठाणे में है। इनमें से एक वस्तु धर्म को जाने विना शेष तीन धर्म फल दायक नहीं हो सकते। इसलिये वस्तु धर्म ही निश्चय धर्म है और बाको के व्यवहार धर्म हैं । इसलिये उपरोक्त पद्य में बतलाया हुआ वस्तु धर्म का चिंतन ही श्रेष्ठ है।-३ योग ते पुदगल जोगxछ रे, खेंचे अभिनव कर्म । योगवर्तना कंपना रे, नवी ए आतम धमों रे -४ शब्दार्थ-अभिनव-नये । योगवर्तना=योगों का व्यापार। कंपनाआत्म प्रदेशों की चंचलता। आतम धर्म=आत्मा का स्वभाव। xजोमवे रे,खांचे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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