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ढाल-६ छठी"मनोगुप्ति" की
_ "पुण्य प्रशंसिये" ए देशी ट तुरंगम चित्त ने कह्यो रे, मोह नृपति परधान । आत रौद्र नु क्षेत्र ए रे, रोक तूं ज्ञान निधान रे। १ मुनि मन वश करो मन ए आश्रव गेहो रे । मन ए* तारशे-मन स्थिर यतिवर तेहो रे ...मु०...२
शब्दार्थ-तुरंगम =घोड़ा। प्रधान =दिवान। आर्त आर्तध्यान । रौद्र रौद्रध्यान ।आश्रवगेह =पाप का घर। यतिवर=मुनि श्रेष्ठ।
भावार्थ-तीन गुपियों में पहली गुप्ति मनोगुप्ति है। मन दो तरह का है, एक द्रव्य मन और दूसरा भाव मन। भाव मन का अर्थ है आत्मा के परिणाम
और द्रव्य मन का अर्थ है मनोवर्गणा के पुद्गल । . मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण किये विना भाव मन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यह मन सन्नी अर्थात् गर्भज पंचेन्द्रिय जीवों के ही होता है। हे ज्ञान निधान मुनि ! मन को वश में करो। क्योंकि यह मन दुष्ट घोड़े समान है, वह जसे सवार को जंगल में भटका देता है, वैसे ही यह मन संसार में भटकाता है राजा के पास जैसे दिवान होता है वैसे ही मोहरूपी राजा के पास यह मन दिवान के समान है और आश्रव का धर तथा आतं-रौद्र ध्यान का क्षेत्र है। किंतु इस दुष्ट मन पर यदि काबू पा लिया जाय तो वह तार भी सकता है। इसलिए मन स्थिर वाला मुनि सारे मुनियों में श्रेष्ठ है-१-२
*मन ममता रसी
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