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अष्ट प्रवचन माता सज्झाय
भावार्थ-पुद्गलों के संयोग से ही योगों की प्रवृत्ति होती है उससे नये कर्म बंधते हैं। योग प्रवृत्ति का अर्थ है आत्म प्रदेशों की चंचलता ( कंपन) । यह आत्म धर्म नहीं है। क्योंकि योगों की प्रवृत्ति और आत्म प्रदेशों की चंचलता आत्मा की विभाव दशा है-४ मु० । वीर्य चपल पर संगमी रे, एह न साधक पक्ष । ज्ञान चरण सहकारता रे, वरतावे दक्षो रे-५ मु. शब्दार्थ-परसंगमी पुद्गलों के संग से । सहकारता-सहायता में । दक्ष चतुर।
भावार्थ-पुद्गलों के संयोग से प्रधृत होने वाला आत्मवीर्य, चंचल और पराश्रयी कहलाता है। यह साधक मन नहीं है। इसलिये दक्ष मुनि अपने मन को आत्म ज्ञान और चारित्र की सहायता में वरतावे। क्योंकि आत्म वीर्य के बिना ज्ञान और चारित्र की स्फुरणा नहीं होती।-५
रत्नत्रयो नी भेदना: रे, एह समल व्यवहार । त्रिकरण वीर्य एकत्वता रे, निर्मल आतमचारो रे-६ म०
शब्दार्थ-भेदना=विराधना। समल = दोषयुक्त। त्रिकरण =तीन योग एकत्वताएकी भाव । आतमाचार आत्मा का आचार ।
भावार्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी रत्नत्रयो की भेदना ( विराधना ) अशुद्ध व्यवहार है। तीनों योगों के वीर्य को एकतानता आत्मा का निर्मल आचार है ज्ञान दर्शन चारित्र ये तीनों भेद तो व्यवहार की अपेक्षा से ही है निश्चय दृष्टि से तीनों एक ही है अत: अभेद है। -६
सविकल्पक गुण साधुना रे, ध्यानी ने न सुहाय । निर्विकल्प अनुभव रसी रे, आत्मानंदी थायोरे-७ मु० .. : भेदता * त्रिगुण
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