Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 44
________________ परिठावणिया समिति को ढाल भावार्थ =शरीर पर राग होने से चंचलता बढती है तथा दुष्ट कषाय का विकास होता है। इसलिये मुनि शारीरिक मोह को छोड़कर ध्यान में रमण करे। ज्ञान और चारित्र के प्रसाद से ही ध्यान की प्राप्ति होती है। ध्यान का अर्थ है चित्त की एकाग्रता। दूसरी २ क्रियाओं द्वारा जितने कर्मों का क्षय नहीं होता, उतना सद्ध्यान द्वारा क्षण मात्र में किया जा सकता है ।...३ जिहां शरीर तिहां मल उपजे रे, तेह तणो परिहार । करे जंतु चर स्थिर अण दुहन्ये रे, सकल दुगंछा वार-४ म० शब्दार्थ...मल टट्टी। तेह तणों=उसका । परिहार=त्याग । अणदुहव्यो= विना दुखाये। दुगंछा घृणा। वार=छोड़ करके भावार्थ-जहां शरीर है, वहां आहार है। जहां आहार है, वहां निहार ( मल ) है। मल त्याग करने की भी मुनियों की अपनी एक विधि है। त्रस तथा स्थावर जीवों की विराधना ( हिंसा ) को तथा सारी दुगंछा (घृणा ) को टाल करके मल परठने का विधान है। जैन मुनि के लिये नाली वगेरे में पेशाब करने का निषेध है। अतः उसके लिये एक अलग पात्र रखा जाता है। जब लघु शंका ( पेशाब की हाजत ) हो तब, उसमें पेशाब करके खुले स्थान में यतना पूर्वक गिरा दे। ऐसा नहीं हो सकता कि आलसी गृहस्थों की तरह सारी रात का मूत्र पात्र में इकट्ठा होकर सडता रहे। मुनि जब मूत्र परठने को जाता है, तब जनसमाज देखता भी है अत: संभव है कि मुनि मन ही मन घृणा महसूस करे अथवा कोइ साधर्मी साधु की अस्वस्थ दशा में उसके मलमूत्र गिराने का प्रसंग आजाय, तब ग्लानि पैदा हो । अतः कहा है कि सारी घृणा को दूरकरके परठे तथा रोगी को सेवा का कार्य सहर्ष करे। तथा देवालय, क्रीडांगन, या गृहस्थ के घर के सामने मल मूत्र को न परछै, जिससे मुनि के प्रति लोगों में घृणा फैले।-४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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