Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 25
________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय शब्दार्थ...कारणे--वास्ते । आदरे करे अशन-आहार। वसना दिका-वस्त्रादिक। ___ भागार्थ "एक ओर निश्चय, दूसरी ओर व्यवहार,एक ओर उत्सर्ग दूसरी ओर अपवाद को साथ-साथ लेकर चलने नाम ही जैन दर्शन विधिमार्ग का है । वचनगुप्ति की जहाँ महिमा है, वहाँ भाषा समिति का स्थान कौन सा कम है ! साधक को उत्सर्ग के साथ अपवाद का अवलंबन अनिवार्यता से लेना पड़ा है, और लेना पड़ेगा। इसलिये मुनि भाषा समिति द्वारा अपने ज्ञान वृद्धि के लिए पांच प्रकार की स्वाध्यायकरे। इससे स्वहित और परहित दोनों है। क्योंकि धर्मोपदेश द्वारा अनेक जीवात्मा सन्मागी बने है, : बनते हैं,। स्वाध्याय का कार्य स्वास्थ्य पर निर्भर है,स्वास्थ्य का संबंध सात्विक आहार से है । इन पारंपरिक कारणों से आहार; वस्त्र, पात्र, पुस्तक, आदि उचित उपकरण (साधन) लेने का नाम गुप्तिरूप उत्सर्ग का समिति रूप अपवाद मार्ग है। -७ जिनगुग स्तवन निज तत्व ने, जोयवा करे अविरोध रे । देशना भव्य प्रतिबोधवा, वायगा करण निज बोधरे -८स० स०. शब्दार्थ...निजतत्त्व ने आत्मस्वरूप को। जोयवा =देखने के लिये । अविरोध =समान । देशना=व्याख्यान । भव्य =मोक्ष के योग्य जोव । प्रतिबोधवा =समझाने के लिये । वायणा =वांचन । निज बोध =अपने आप के लिये ज्ञान। ___ भागार्थ...जिनेश्वर देव की स्तवना करते समय मुनि अपनी आत्मा को जिनेश्वर देव की समानता में रख कर सोचे, कि ये जिनेश्वर देव वाले गुण मेरे में भी हैं या नहीं ? हैं तो प्रगट हैं या अप्रगट । अप्रगट हैं तो आवरण कौन से हैं। आवरण हैं ,तो वे दूर हो सकते हैं या नहीं। हो सकते हैं, तो कौन से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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