Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 32
________________ एषणा समिति की ढाल २३ तनु अनुयायो वीर्य नो जो, वर्तन अशन संयोग । वृद्ध यष्टि सम जाणी ने जी, अशनादिक उपभोग...८ मन० शव्दार्थ-तनु अनुयायो-शरोर के साथ रहनेवाला । वर्तन-व्यवहार। अशन= संयोग -आहार के संयोग से । यष्ठि-लठी। उपभोग-काम में लाना । भावार्थ शरीराश्रित जो आत्मवीर्य है, वह आहार के संयोग से प्रवृत्त होता है अतः साधक आहारादि को, जैसे बूढ़े को लकड़ी के सहारा की जरूरत होती हैं वैसे ही शरीर को आहार की है, ऐसा समझकर ग्रहण करे । -८ जिहां साधकता नवी अडे जी, तिहां नवी ग्रहे आहार । बाधक परिणति वारवा जी, अशनादिक उपचार...६ मन० शब्दा-बाधक परिणति बाधा उत्पन्न करने वाली स्थिति । वारवा-निवारण करने के लिये। उपचार--उपयोग करे । ___भावार्थ =जहां तक आहार के विना यात्म साधना अक्षुण्ण चलती रहे, या रह सके यहां तक तो मुनि आहार ग्रहण न करे। परंतु साधना में बाधक होने वाली ( कारणों की ) परिणति को रोकने के लिये अर्थात् बाधा करने लगे तब आहारादिक का उपयोग करे । - सडतालोसै द्रव्य ना जी, दोष तजी निराग । असंभ्रांत मूर्छा विना जी, भ्रमर परे बड़ भाग-१० मन० शब्दार्थ-असंभ्रान्त-उपयोग सहित । बडू भाग-बड़े भाग्य वाला । ___ भावार्थ--साधु की ओर से उत्पन्न होने वाले सोलह दोष, ( १६ ) दाताकी ओर से उत्पन्न होने वाले सोलह दोष, ( १६ ) दोनों की ओर से सम्मिलित रूप से उत्पन्त होने वाले दश (१०) दोष, यों बयाँलीस दोष एषणा के हैं और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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