Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 33
________________ अष्ट प्रवचन माता सज्झाय पांच (५) दोष ग्रासेषणा के हैं । इन सैंतीलीस दोषों को टाल करके आहार ग्रहण करे। कर्म बंध के मूल कारण राग, मूर्छा, संभ्रम, लोलुपता आदि भाव दोषोंको भी टालता रहे। प्रायः भाव दोषों के बिना द्रव्य दोष नहीं हुआ करते, कदाचित् हो भी जाये तो भाव दोष के बिना कर्म बंध नहीं होता। इसमें देने वाला, लेने वाला, और दी जाने वाली वस्तु शुद्ध होनी चाहिये । जो भाग्यशाली मुनि इन दोषों से रहित आहार लेते हैं, वे भंवर के समान फलों से रस लेकर भी दाता को कष्ट नहीं पहुंचाते। १० तत्त्वरूचि तत्त्वाश्रयी जी, तत्त्वरसिक निग्रंथ । कर्म उदये आहारतां जी, मुनि माने पली मंथ-११ मन० शब्दार्थ-कर्म उदय-क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से । आहारतां-आहार लेते हुए भी। पलीमंथ-उपाधि-बेठ । भावार्थ-तत्त्वों की रूचि वाले, तत्त्वों के आश्रयी तथा तत्त्वों के रसिक 'निग्नन्थ मुनि क्षुधा वेदनीय के उदय होने से आहार करते हुये भी उस आहार को पलिमंथ( वेठ ) के तुल्य समझते हैं। ११ । लाभ थकी पण अणलहे जी, अति निर्जरा करंत । पामे अणव्यापक पणे जी, निर्मम संत महंत-१२ मन० शब्दार्थ-लाभ थकी- मिलने से भी । अणलहे-न मिलने पर । पामें-मिलनेपर अणव्यापक पणे-लोलुपता रहित । निर्मम-ममता रहित भावार्थ = जिस देश में जिस समय भोजन बनता हो तब, वा हुधा वेदनय के उदय होने पर तथा अपने प्रत्यारव्यान के समाप्त होने पर मुनि आहार करते है, तथा अन्तराय कर्म के उदय से आहार न मिलने पर शान्त रह कर बहुत से कर्मों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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