Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 31
________________ अष्ट प्रनचन माता सज्झाय एम परत्यागी संवरी जी, न ग्रहे पुद्गल खंध । . साधक कारण राखवाजी, अशनादिक संबंध-५ मन० शब्दार्थ-पुद्गल खंध--कर्म पुद्गल का समूह । कारण--साधना का कारण शरीर भावार्थ --ऐसे पुद्गल त्यागी और संवर अवस्था वाले मुनि पुद्गलों के स्कंध (समूह) रूप आहार को ग्रहण नहीं करे। किन्तु मुनि की आत्मा अशरीरी तो है नहीं, अशरीरी बनने की कोशिश में जरूर है। निश्चय नय से आत्म-सिद्धि रूप कार्य का कारण आत्मा ही है परन्तु कथंचित् भवनाही शरीर भी नैमित्तिक कारण है । अत: जब तक कार्य सिद्ध न हो जाय, तबतक उसके साधक रूप शरीर को स्वस्थ और उपयोगी रखने के लिये आहार करना आवश्यक है। ५ आतम तत्व अनंतताजी, ज्ञान बिना न जणाय । तेह प्रगट करवा भणीजी, श्रुत सज्झाय उपाय।६ मन० तेह देहथी देह एह जी, आहारे बलवान । साध्य अधूरे हेतुने जी, केम तजे गुणवान-७मन० शब्दार्थ--आतम तत्त्व-आत्मा के गुणों को। अनंतता--अनंतपना । करवाभणीकरने के लिये । श्रुत-ज्ञान । सज्झाय स्वाध्याय । तेह-वह, स्वाध्याय। साध्य अधूरे...लक्ष्य अपूर्ण हो तब तक । भावार्थ...साधक के लिए आवश्यक है-आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पिछानना और उसे प्रगट करना । क्योंकि आत्म तत्त्वके अनंत गुणों रूप अनंतताको पहचानने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञानस्वाध्याय से प्राप्त होता है एवं स्वाध्याय के लिए स्वस्थशरीर की आवश्यक्ता है। स्वस्थता आहारसे रहतीहै अतःसाध्य अधूरा रहते हुये साधन (आहार) को गुणवान व्यक्ति कैसे छोड़ सकता है ? इसलिये गुणवान मुनि एषणा पूर्वक प्राप्त किया हुआ आहार अलोलुपता से ग्रहण करे-६-७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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