Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 34
________________ एषणा समिति की ढाल २५ का निर्जरी करते है । आहार के लिये गौचरी जाना तो अपने बस की बात है। किंतु आहार का मिलना न मिलना भाग्याधीन है । अपने पक्ष में तो अंतराय कर्म के उदय से तथा लोक पक्ष में लोगों के अनजान होने से अथवा दान-भावना की अल्पता से ज़ब मुनि को आहार न मिले, तब सहजतया द्वषोत्पत्ति की संभावना रहती है। लोगों पर द्वष होने से मुनि सोचेगा, कि ये लोग कितने लोभी हैं ?, जो कि एक मुनि को भी भिक्षा नहीं दे सकते, तब इनके यहाँ अनाथ, दीन,-हीन, गरीबों को देने के लिये तो पड़ा ही क्या है ? । अपने पर द्वेष होगा, तब यों विकल्प आयेंगे कि सारे साधुओं को तथा भिखारियों को तो भोजन मिलता है किंतु मैं ही एक कैसा अभागा हूं, जो कि भूखा बैंठा हूँ। इस परिस्थिति में अपने प्रति और लोगों के प्रति दीन-हीन भावना न आने का मार्ग इस गाथा में दिखलाया है। मुनि विचारे कि आहार मिलने की बजाय न मिलने से अधिक निर्जरा होती है। अतः अच्छा हुआ ! यदि आहार नहीं मिला तो सहज ही में तप की वृद्धि हो गई, स्वाध्याय को समय अधिक मिलेगा, स्थंडिल भूमि जाने की आवश्यकता न पड़ेगी। पात्र धोने न पडेंगें। शरीर हल्का रहने से ध्यान की स्थिरता अधिकतर बन सकेगी। क्या है, आज नहीं मिला तो कल मिल जायेगा। ऐसे विराग पूर्वक चिंतन से बहुत निर्जरा होती हैं। ग्लानि, द्वेष, आर्त ध्यान आदि पास ही नहीं आ सकते । यदि मुनि को आहार प्राप्त हो गया तो उसे अलोलुपता से ग्रहण करे । १२ अणाहारता साधता जी, समता अमृत कंद ।। श्रमण भिक्ष वाचंयमी जी, ते वंदे 'देवचन्द्र'-१३ मन० ब्दार्थ-अणाहारता-अनाहारी पना। साधता-साधते हुये। भावार्थ = अणाहारिकता की साधना करने वाले, समता रूपी अमृत के कंद, श्रमण, मुनि, भिक्ष आदि को श्री देवचद्र जी वंदना करते हैं। -१३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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